तारा रहस्यम् | Tararahasya Of Brahmananda Giri

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Tararahasya Of Brahmananda Giri by पंडित सरयू प्रसाद शास्त्री

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमपटले तारागायजन्नीप्रकरणम्‌ र्रे गायन्नीं परिजप्याथ मूलमन्त्रं जपेन्न च। सा सन्ध्या निष्फत्षा ज्ञेयाप्यभिचाराय कहंपते ॥| ९२ ।| प्रातःसन्ध्याविहीनश्थय॒ न॒च स्नानफलं लभेत्‌। सध्याहसन्ध्याद्दीलश्व॒ न॒ पूजाफत्नमाप्ठुयात्‌ ॥ €३॥ सायंसन्ध्यातिद्दीतस्य जपविष्तः सदा भवेत्‌। तस्मात्‌ सुन्दरि ! तत्वज्ञः सन्ध्यात्रयमुपाचरेत्‌ ॥ ९४ |। गायत्री का जप करके जो मूलमंत्र का जप नहीं करता, उसकी की गयी 'सब्ध्या' न्िष्फल कही गयी है, अथवा वह अभिचार के लिये होती है। हैं प्रिये ! जो प्रातः कालीन सन्ध्या नहीं करता, वह स्नान का फल नहीं पात्ता । मध्यात्ग कालीन संघ्य. जो नहीं करता, उसे देव-पूजा का फल नहीं प्राप्त होता । इसी प्रकार जो साय्यकालीन संध्या नहीं करता, उसके जप में सर्वदा विघ्न हुआ करता है। इसलिये हें सुन्दरि ! तत््वज्ञ पुरुष को त्रिकार सन्ध्या अवद्य करनी ऊहिये 0, ९२-९४ ५७ प्रातन तपेणं कार्य्य न च साथ॑ विशेषतः। सध्याहे तपणं ऋत्वा यथोक्तफलचान भषेत्‌ ॥ ६५ ॥ प्रात: कारू तथा सायंकाल में तर्पण नहीं करना चाहिये | हाँ! भध्याहू- काल में तर्पण करके मनुष्य शास्त्रोक्त फल का भागो होता हैं ॥ ९५ ॥ अध्येहीना तुया सन्ध्या शोकदुःखप्रदा मता। अध्य त्रिसन्ध्यं दातव्यमन्यथा सिष्फलो जप+। समनन्‍त्रापि च गायत्री सत्यं सत्यं बरानने !॥ ९६॥ हे वरानने ! अध्यंहीन सन्ध्या भी निष्फल होती है तथा शोक और दुः्ख देने वाली होती है । इसलिये तीनों काल में सन्ध्या के साथ अर्ध्य प्रदान करना चाहिये । अन्यथा विधिवत्‌ व्याहृति-सहित गायत्री का जप भी निष्फल होता है--यह मैं सत्त्य-सत््य कहता हूँ ॥ ९६ ॥ ततः संहारमुद्रया तत्तेजः स्वहृदये नयेत्‌ प्रशम्य च पूजाख़रेत्‌। इत्येव॑ सन्ध्या श्रीमदेकजटाघिषया इति | इसके वाद संहार मुद्रा द्वारा उसका तेज अपने हृदय में धारण करे और प्रणाम करके उसकी विधिवत्‌ पूजा करे। यह एक जदाविषयक सन्ध्या हुई। अब उमप्रतारा-सन्ध्या का विचान देखिये । भीहिजेन्द्र कविकृत 'विद्या'व्याख्या-विभूषित् तारारह॒रुय का तारागायत्री वर्णन नामक द्वितीय प्रकरण समाप्त ॥ २ ॥।




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