वैदिक संस्कृति | Vaidik Sanskriti
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
176 MB
कुल पष्ठ :
657
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गोविन्दचन्द्र पाण्डेय - Govindchandra Pandey
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१६ / वैदिक संस्कृति
पर आर्यों का लड़ाकू और घुमंतू आक्रमणकारी कबीलों के रूप में चित्रण ही
असिद्ध है। आर्यों में पहले भी, जैसे बाद में, लड़ाकू जन भी थे, पर सभी आर्यों को
वैसे ही चित्रित करना निष्प्रमाण है। यह मानने में कोई अड़चन नहीं दीखती कि
प्रागेतिहासिककाल से आर्यजन एक विस्तृत प्रदेश में सजातीय बोलियाँ बोलते हुए
संचरण करते थे और इस प्रदेश का विस्तार सिन्धु से वंक्षु और वंक्षु से वोल्गा तक माना
जा सकता है। वाह्नीक प्रदेश चतुर्दिक् विस्तार का एक सहज केन्द्र है ।
वस्तुतः नाना आर्यभाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन ने एक तुलनात्मक भाषाशास्त्र
को अवश्य जन्म दिया है, जो भाषा-संरचना और भाषा-परिवर्तन के नियमों पर प्रकाश
डालता है, किन्तु इस शास्त्र के अनेक विशेषज्ञों का यह आग्रह है कि उससे उन
भाषाओं के अभिन्न मूल एवं प्रागैतिहासिक विकास का निश्चित पता चल सकता है
जिसके सहारे आर्यों की मूल संस्कृति और उसके विकास का इतिहास भी पता चल
सकता है, तर्कसंगत नहीं है। नियत संरचनात्मक होते हुए भी भाषा एक सांस्कृतिक
व्यापार है, न कि प्राकृतिक सत्ता। उसकी रचना के नियम एक सीमित परिस्थिति में
शिष्ट वक्ताओं की प्रवृत्तियाँ बताते हैं, न कि अविचल लोक-व्यवहार। भाषा-व्यवहार
के ज्ञान से ही भाषा के नियमों का पता चलता है और यह व्यवहार सिर्फ नियमों पर
नहीं बल्कि अतर्क्य ऐतिहासिक कारणों पर भी निर्भर करता है। इसीलिए वर्तमान भाषा
के ज्ञान से उस भाषा का अतीत या अनागत इतिहास यथावत् पता नहीं चल सकता।
उदाहरण के लिए आधुनिक हिन्दी, गुजराती आदि के ज्ञान से संस्कृत का उद्धार.
असंस्कृतज्ञ के लिए संभव नहीं है। तो फिर देश, काल, जाति अथवा समाज के भेद से
भिन्न, ग्रीक आदि के ज्ञान से उन सबकी अविदित जननी का उद्धार किस प्रकार हो
सकता है? १४ न तो बोलियों से पृथक् एक मूल भाषा की सत्ता ही निश्चित है ?८ न यह
कि उससे अन्य भाषाएँ किस प्रक्रिया से उत्पन्न हुई--शाखा-प्रशाखा के क्रम से या
तरंग-अनुतरंग के रूप में, या दोनों के अनिश्चित मेल से ।१९ संभवत: नाना बोलियों में
अनियत सादृश्य, सान्निध्य और संपर्क से उनमें एक जाति का भ्रम होता है।
ऐतिहासिक काल की बोलियों से उनके प्रागैतिहासिक रूपों का अनुमान संभव नहीं है,
न वे अनुमान किसी प्रकार सत्यापनीय हैं।
मूल आर्यभाषा के ही अनिश्चित होने पर उसके आधार पर आर्यों की मूल संस्कृति
का अनुमान भी संदिग्ध हो जाता है। उस संस्कृति को घुमंतू पशुपालक संस्कृति भी
कहा गया है, कृषि-प्रधान भी, ताम्राश्मयुगीन भी, नवाश्मयुगीन भी ।२० उसका मूल
स्थान योरोप, दक्षिण रूस अथवा मध्य एशिया बताया गया है। उसके प्रसार को
आक्रमण या प्रत्रजन का परिणाम भी बताया गया है, कृषि के प्रसार का परिणाम भी।२
इन मतभेदों के पीछे ऐतिहासिककाल की भाषाओं के आधार पर सुदूर प्रागितिहास के
अनुमान का प्रयास है।
इस प्रकार भारत के प्राचीन भूगोल का स्मरण करते हुए आर्यों की मूल
भारतवासिता की कल्पना उनकी वैदेशिकता की कल्पना से अधिक अयुक्त नहीं कही
User Reviews
No Reviews | Add Yours...