बरवै रामायण | Barvai Ramayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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>« फेंछ >- आदि श्री रामो जयति श्री राम सीता। श्री गणेशाय नमः ३६ राग विरवे सीय राम अरु रूपन चले मग जाहि। ग्राम नारिनर निरषत रनन्‍्य (? ) लुभाहि ॥ सजल नयन तन पुलुकित गदगद बेन। कह: निछावर कछरिये कोटिक सेन ॥। जेहि जेहि गाऊ गोइडवा निकर्साह जाइ। टेय बह (? ) के सर्नाह लेहि संग छाइ॥ सोभा कहि नह सकहि देषि मन सोह। ेृ जन बसंत रति सहित मदन बनु सोह।॥॥ अंत (ठुलूसी ) सुम्रित राम सुलभ फल चारि। वेद पुरान पुकारत कहंत पुकारि॥ राम नाम पर तुझसी नेह निबाहु। येहि ते नहीं अधिक कछ जीवन लाहु ॥ दोप द्ुरिति दुप दारिद दाहक नाम। सकल सुमंगल दायक्क तुलसी राम॥ अधूरी कथा का यथा-प्रथव निर्वाह करते हुए भी प्रारंभ के छन्‍्द वरवें _ रामायण की अन्य क्रिसी भी प्रति में नही पाये जाते। अंत के तीन छल्द (लछ) कोटि की प्रति (२), (४) और (५) प्रतियों मे ५६, ५७ और ५८ छन्दों के रूप मे अवध्य प्राप्त होते हैं। वरवे रामायण की मुद्रित प्रति में भी इसी क्रम में ये छन्‍्द है। इस प्रति का निर्देश डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने भी अपने ग्रन्थ में किया है। वे लिखते है--- जात प्रतियों में सव से प्राचीन कदाचित्‌ स० १७९७ की है जो प्रतापगढ़ (अवध ) के राजकीय पुस्तकालय में है।, . .मिलने पर पता चला है कि: १. तुलसीदास--डॉं० साता प्रसाद गुप्त, पृष्ठ २०६-२०७॥




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