एक रात का नरक | Ek Rat Ka Narak

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Ek Rat Ka Narak by उपेन्द्र नाथ अश्क - Upendra Nath Ashak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक रात का नरक । २१ फिनारे लगी हुई तार पर बेठ गया । उस समय मालूम होता है लाला मुकुन्दी लाल जी को भी थकावट महसूस हुई । हो सकता है उन्हें मेरा यों. आराम से बैठना अखरा हो । वे खम्बे के दूसरी ओर अपने भारी भरकम शरीर के साथ बैठ गये । भेरी ओर तार सिंच गयी जैसे चर्सो फिरने पर रेल के सिगनल की तार और मैं मुंह के बल सड़क पर गरिरता-गिरता बचा । इस पर सब हँस पड़े । मुझसे यह अपमान सहन न हो सका 1 दुवारा यहीं बैठ कर, मैने जोर लगाया, पर कहाँ हाथी ओर कहां चुहिया, तार ज़रा भर भी नीची न हुई। उन्हें मैरी इस स्पर्धा पर, शायद क्रोध आ गया और उन्होंने तार पर और भी ज्ञोर दिया। फल यह हुआ कि सम्वा ही टूट गया। लाला जी उस पर पाँव टिकाये खड़े थे । उनके घुटने पर चोट भा गयी हम दोनो खिन्न हुए, परन्तु लाला जी ने भामूली बात है'--कह कर टाल दिया। उस समय यद्यपि इसे साधारण घटना समझ लिया गया, पर मेरा माधा उसी समय ठनका था । दिल ने कहा, यह बुरा अपशकुन हुआ । आज किसी-न*किसी को खैर नहीं । मुझे क्या मालूम था कि विधांता का नज़ला मुझी पर गिरेगा और मैं ही उसकी कोप-दृष्टि का भाजन वनूंगा । मह॒ता जी के आने पर सव हेंसते-हँसते मेले की खुशी में रवाना हो गये । सबने अपने-अपने साथी वना लिये मौर वातचीत, हंसी-ठट्ठा करते चलने लगे। मैं इस पार्टी में नवाग्न्तुक था। मेरा कोई साथी न बना। उस समय मेरी दृष्टि उस पहाड़ी कुली पर गयी, जो मज़े से सिर पर फलों की टोकरी लिये चला जा रहा था। मैंने उसे अपना साथी बना लिया और धीरे-धीरे ऐसा सान पर चढ़ाया कि वह खुल गया । यहाँ तक कि जब मैंने उससे कहा, 'यार कोई पहाड़ी गीत ही सुनाओो,” तो उसने




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