चार तीर्थकर | Char Teerthakar

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Char Teerthakar by पं सुखलालजी संघवी - Pt. Sukhlalji Sanghvi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२१ भरत को ब्राह्मण वर्ग से होने वाली भावी खराबियों का वन सुनाते हैं और आखिर में आश्वासन देते हुए कहते हैं कि जो हुआ सो हुआ, इससे अम्ुक लाभ भी हुआ हे, इत्यादि । जिनसेन का भरत के स्वाभाविक जीवन को संकुचित निद्गत्तिधम में ढालने का प्रयत्न जरा भी छिपा जिनसेन के मतानुसार ब्राह्मणेतर तीन चवर्णों की स्थापना ',.. ऋषभ ने की थी-- ह पूर्वापरविदेहेबु या स्थिति: समवस्थिता | साथ प्रवतनीयात्र ततो बीवन्त्यमूंः प्रजा; ॥१४३१॥ पटकर्माणि यथा तंत्र यथा वर्णाश्रमस्थितिः | यथा ग्रामग्हादीनां संस्यायाश्र प्रथग्विधाः ||१४४॥ तथात्राप्युचिता बृत्रि: उपायेरेमिरज्ञिनाम | नोपायान्तरमस्तेषां प्राणिनां जीविकां प्रति ॥१४५॥ अथ।नुध्यानमा्नेण विभो: शक्र: सहामरे: | प्रात्स्तजीवनोपायानित्यकार्पीद्विभागत:ः._ ॥१४६॥ --जिनसेन महापु० प्वब-१६ उत्पादितास्वयोीं. वर्णास्तदा तेनादिवेधसा | क्षत्रिया वशिजः शूद्राः ज्तत्राणादिभिगुर: ॥१८१॥ कत्रियाः शजब्नजीवित्वमनुभूय. तदाभवन्‌ | वैश्याश्व. कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविता/ ॥ १८४॥ तेषां शुअषणाच्छुद्रास्ते हद्विधा कार्यकारव: | कारवो रजकाद्या; स्थुः -ततोडन्ये स्थुरकाखः ([१८५॥। कारवोडपि मता द्वधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः। : तन्राउस्पृश्या: प्रजाबाह्या: स्प्ृश्याः स्थुः कतकादय: ॥1१७६॥। थथास्वं स्वोचितं कर्म प्रजा दधुरसडर्म | विवाहजातिसम्बन्धव्यवदास्थ तनन्‍्मतम्‌॥ ६८७॥




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