जैन तर्क भाषा | Jain Tark Bhasha

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Jain Tark Bhasha by पं सुखलालजी संघवी - Pt. Sukhlalji Sanghvi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( «८ ) इस वृत्तिकी रचना दो दृष्टिओंसे हुई है-एक संग्रहदृष्टि और दूसरी तालयदृष्टि । उपाध्यायजीने जहाँ जहाँ विशेषावश्यकभाष्यके तथा प्रमाणनयतत्त्वाकोकके पदार्थोंकी लेकर उनपर उक्त दो अन्धोंकी अतिविस्तृत व्याख्या मलूधारिवृत्ति तथा स्याद्वादरल्लाकरका अति संक्षेप करके अपनी चचो की है वहाँ उपाध्यायजीकृत संक्षिप्त चचाके ऊपर अपनी ओरसे विशेष खुछासा या विशेष चर्चा करना इसकी अपेक्षा ऐसे स्थलोंमें उक्त मल्धारिब्त्ति तथा स्थाह्गादरत्नाकरमेंसे आवश्यक भागोंका संग्रह करना हमने छाभदायक तथा विशेष उप- युक्त समझा, जिससे उपाध्यायजीकी संक्षिप्त चचौओंके मूल स्थानों का ऐतिहासिक इृष्टिसे पता भी चल जाय और वे संक्षिप्त चचाएँ उन मूल अन्थोंके उपयुक्त अवतरणों द्वारा विशद्‌ भी हो जायें, इसी आश्वयसे ऐसे स्थछोंमे अपनी ओरसे खास कुछ न लिख कर आधारभूत ग्न्थोंमें से आवश्यक अवतरणोंका संग्रह ही इस वृत्तिमं किया गया है । यही हमारी संग्रहदृष्टि है। इस दृष्टिसे अवतरणोंका संग्रह करते समय यह वस्तु खास ध्यानमें रखी है कि अना- वश्यक विध्तार या पुनरुक्ति न हो। अतणव मल्धारिबृत्ति और स्याद्वादरत्नाकरमें से अवतरणोंको लेते समय बीच-बीचमें से बहुत-सा भाग छोड़ भी दिया है । पर इस बातकी ओर ध्यान रखनेकी पूरी चेष्टा की है कि उस-उस स्थरूमें तकभाषाका मूल पूर्ण रूपेण स्पष्ट किया जाय । साथ ही अवतरणोंके मूल स्थानोंका पूरा निर्देश भी किया है जिससे विशेष जिज्ञामु उन मूल अन्धोंम से भी उन चर्चाओंकोी देख सके । उपाध्यायजी केवछ परोपजीवी लेखक नहीं थे । इससे उन्होंने अनेक स्थडोंमे पूर्ववर्त्ती जैन अन्थोंमें प्रतिपादित विषयों पर अपने दार्शनिक एवं नव्यन्याय शाख्रके अभ्यासका उपयोग करके थोड़ा बहुत नया भी लिखा है। कई जगह तो उनका लेख बहुत संक्षिप्त ओर दुरूह है। कई जगह संक्षेप न होनेपर भी नव्यन्यायकी परिभाषाके कारण वह अत्यन्त कठिन हो गया है । जैन परंपरामें न्यायशाखका खास करके नव्यन्यायशाखक्रा विशेष अनु- शीलन न होनेसे ऐसे गम्भीर स्थढोंके कारण जैनतर्कमाषा जैन परंपरामें उपेक्षित सी हो गई है । यह सोच कर ऐसे दुरूह तथा कठिन स्थछोंका तात्पय इस बृत्तिमें बतछा देना यह भी हमें उचित जान पड़ा । यही हमारी इस दृत्तिकी रचनाके पीछे तात्पर्यदृष्टि है। इस दृष्टिके अनुपतार हमने ऐसे स्थलोंमें उपाध्यायजीके वक्तव्यका तात्यये तो बतलाया ही है पर जहां तक हो सका उनके प्रयुक्त पदों तथा वाक्योंका शब्दाथ बतलानेकी ओर भी ध्यान रखा है। जिससे मूलग्रन्थ शब्दतः रूग जाय और तात्यय भी ज्ञात हो जाय । तात्पये बतछाते समय कहीं उत्थानिकामें तो कही व्याख्यामें ऐतिहासिक दृष्टि रखकर उन अन्थोंका सावतरण निर्देश भी कर दिया है जिनका भाव मनमें रखकर उपाध्यायजीके द्वारा लिखे जानेकी हमारी समझ है और जिन अन्थों को देखकर विशेषार्थी उस-उस स्थानकी बातको और स्पष्टताके साथ समझ सके । इस तकंभाषाका प्रतिपाद्य विषय ही सूक्ष्म है । तिस पर उपाध्यायजीकी सूक्ष्म विवेचना और उनकी यत्रतत्र नव्यन्याय परिभाषा इन सब कारणोंसे मूठ तरकंभाषा ऐसी सुगम नहीं




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