सरदार पृथ्वीसिंह | Sardar Prithvisingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अमेरिकाके रास्तेपर प्र १०० हिंदुस्तानियोंको छेकर हॉगिकॉगके लिए रवाना हुआ । मुसाफिर भेइबकरियोंकी तरह जहाजमें हूँसे हुए थे । इतना दस घुट रहा था कि कमजोर आदमियोंका ददना सुद्किक था । आमतोरसे जहाज छे दिनोंसें हांगकांग पहुंच जाता है अगर बह ऐसे दूफानसें पढ़ गया कि बड़ी-बड़ी विपत्तियोंके बाद १५ वें दिन हॉगकॉँग पहुँच सफा। जहाज इतना हिल रहा था कि सिधाय चिर-अभ्यस्त नाबिकोंके कोई खड़ा नहीं रह सकता था । डेकपर सुसाफिर रस्सियोंकों पकड़े खड़े रहते रस्सी छूटी कि अथाह समुद्रमें । इस प्रकार कइयोंने अपनी जान खोयी । कप्तान भी इतना निराश हो गया था कि उसने लोगोंसे कह दिया--अब इमारे हाथमें कुछ नहीं है । तरुण प्रृथवी सिंहका उत्साह कुछ ढीला पढ़ने ठगा खास कर जब कि ५ दिन बाद उपवास करनेकी नोबत आयी । भूखके मारे छोग इतने निर्बक हो गये थे कि रस्सीको भी कड़ाईके साथ न पकड़ पाते और तूफान उन्हें पानीमें ढकेठ देता । प्रथ्वीसिंहका भी बिरतरा-उरतरा ससुद्रमें चछा गया सिफं एक छोटासा टूड बचा था जिससें कुछ कपड़े रह गये थे । आठ दिनके उपवासके बाद शरीर बिलकुल दुर्बल हो गया था जब जहाज हॉगकॉग बंदरसे छगा । हॉगकँग में हॉगकांगसें प्रथ्वीसिंहका किसीसे परिचय नहीं था । उनके पास यद्यपि ६५ रु. बच रहे थे. छेकिन वह कमसे कस खर्चमें रहना चाहते थे इसीलिये दूसरे सुसाफिरोंके साथ वह भी सिख गुरुद्वारामें चले गये । सभी ऊोग रुरुद्द।राके बड़े हॉलिसें अपना ऊरूटा-पटा रखकर रातकों बाहर खुछे आसमानके नीचे सोया करते । पथ्वीसिंदकों अभी चोरोंका तजरबा था नहीं उन्होंने रुपयोकों टूकमें रख हॉलके भीतर छोड़ दिया । सबेरे उठकर देखते हैं तो रुपये गायब । अब एक पेसा भी उनके पास न था । वह पथके सिखारी थे । किसी तरह रुरुद्वारा वाऊोंकों मालूम हुआ । बह खानेके लिए डुका भेजा करते । यहीं




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