कसायपाहुडं | 1912 Kasayapahunam (1958)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शा० २२ ] मूंलपयडिपदेसबिदृत्तीए मंगविचओ १९ $ २३, जहण्णए पयदं | दुविहों णि०--ओघेण आदेखे० । ओघेण पोह० जहण्णाजहण्ण० पदेसविहत्तीणं णत्थि अंतर | एवं चठगईसु। एवं णेंदव्व॑ जाव अगाहारि त्ति। * 8 २४, णाणाजोवेहि भंगविचओ दुबिहो-जहण्णओ' उक्कस्सओ चेदि | उकस्से पयद॑ | तत्थ अड्डप६--जे उककरसपद्सविह॒त्तिया ते अशुक्कस्सपदेसस्स अविहत्तिया । जे अगुक्कस्सपदेसबिहत्तिया ते. उक्क०पदेसस्स अविहत्तिया | एदेण अद्डपदेण दुविहो णि०--ओधेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्कस्सियाएँ पदेसविहत्तीए सिया सब्बे जीवा अविहत्तिया १ । पिया अविहृत्तिया व विहत्तिओं थं२। सिया अविहत्तिया थे 'विह॒त्तिया च ३ । अशुकरसस्स वि विहत्तिपुव्वा तिण्णि भंगा वत्तव्वा ।एवं सब्बणेर्‌इय- सव्यतिरिब्स मणशुस्सतिय-सव्वदेवे त्ि। मणुसअपञ्चाणयुक० अणगुक० अट्टर्भगा। एवं णेदव्त॑ जाव अणाहारि त्ति | विभक्ति होती है; अतः वहाँ न उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर होता हैं, और न अनुत्कृष् प्रदेशविभक्तिका अन्तर होता है.। इसी प्रकार अचाहारक सार्गंणा तक अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये। 8 २३. अब जधन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो अ्रकारका है--ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार चारों गतियोमे जानना चाहिए। इस प्रकार अनाहारी प्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ---ओघसे क्षपित कर्माशवाले जीवके दसवें गुणस्थानके अन्तमें मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। उसके बाद सोहका सद्भाव नहीं रहता, अतः न जघन्य- प्रदेशविभक्तिका अन्तर प्राप्त है और न अजघन्य विभक्तिका अन्तर प्राप्त होता है। जादेश से जिनएगतियोंमें क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्ति सम्भव नहीं है! उनमें क्षपित कर्माशवाला जीव मोहका क्षपण न करके उसके पूर्व ही लौटकर जिस ज्ञिस गतिमें जन्म छेता है उसके प्रथम समयमें ही जघन्य प्रदेशधिभक्ति होती है। अन्यथा नहीं होती, अतः आदेशसे भी दोनों दिभक्तियोका अन्तर नहीं दोता। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जघत्वय और अजघन्य अदेशविभक्तिका अन्तरकाल क्यो सम्भव नहीं है इस बातको उक्त विधिसे घटित करके जान लेना चाहिए। 8 २४. चाना जीघोको अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है--जघन्य और उत्क्ष्ट । उत्कटसे प्रयोजन है.। उसमें अर्थपद्‌ दै--जो उत्ट्ष्ट प्रदेशविभक्तिवाछे जीव हैं वे अलुल्कृष्ट प्रदेशोंकी अविभक्तिषाछे होते हैं और जो भजुत्कष्ट अवेशविभक्तिवाले जीव हैं वे उत्कृष्ट अदेशोंकी अविभक्तिवाले होते हैं। इस अरथेपदके अजुसार निर्देश दो प्रकारका हे--ओघ और जादेश | ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट भदेशविभक्तिकी अपेक्षा कदाचित्‌ सब जीव अविभक्तिषाले होते है १ । कदाचितत अनेक जीव अविभक्तिवाले और एक जीव विभक्तिवाला होता है २। कद्मचित्‌ अनेक जीव अविभक्तिवाले और अनेक जीव विभक्तिवाले द्वोते हैं ३। अनुत्क्के भो विभक्तिको पूर्वमें रखकर तीन भंग होते हैं । तात्पयें यह है. अनुत्छष्ट विमक्तिकी अपेक्षा संग कहते समय १. आ०प्रतो 'दुविहो णि० जहण्णओ' इति पाठः |




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