कबीर वाणी पीयूष | Kabir Vani Piyush
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
252
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कबीर : कृतित्व / २३
अतिभा एक तरफ धरी रह गई और सिद्धान्त-विवेचक की प्रतिभा उस पर
पूर्णतया हावी हो गई है। कवीर का ब्रह्म मूल रूप मे क्या और कैसा है,
सिद्धान्त-प्रतिपादन के स्तर पर 'रमैनी' के अन्तर्भत आने वाली निम्न पंक्तियाँ
देखें--
“नां जसरथ धरि औतरि आवा | नां लंका का राव सतावा॥।
देवे कोखिन ओऔतरि आया । नां जसवे ले गोद खेलावा ॥
ना वो ग्वालन के सयि फिरिया । गौबरधन ले न कर धरिया।।
बावन होइ नह बाले छलिया । धरनी वेद ले न उधघरिया ॥
गंडक सालिगरास न कौला । मच्छ-कच्छ होइ जर्लाह न डौला ॥)
बढ़ी वोशि ध्यान नंहि लावा। परसुराम हर खची न सतावा ॥
चारादती सठीर न छांड़ा । जगन्नाथ ले पिंड नगाड़ा ॥
कहै कबीर विचारि करिं, ऐ उनले व्योहार।
याही ते जो अगस है, सौ बरवि रहा संसार
है न कवित्वहीन, शुष्क-नी रस वर्णन ? महज सिद्धान्त का प्रतिपालन !
स्यात् कवीर की इसी प्रकार (रमैनी) की उक्तियाँ देखकर ही कुछ लोग कहने
लगते है कि वे कवि न होकर कोरे चिन्तक, सुधारक और सिद्धान्त प्रतिपादक
ही थे। इस प्रकार की उक्तियों को देखकर इससे अधिक और कुछ उन्हें कहा
भी कैसे जा सकता है ? देखें---
“अविगत अपरम्पार ब्रह्म, ग्यान-रूप सब ठास ?
बहु विचार करि देख्या, कोई न सारिख रास ॥
निश्चय ही रमेनी के इस प्रकार के पदों का हृदयग्राही कविता के साथ
कोई सम्बन्ध नही । इनमे कवीर ने युगीन परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी
तुकबन्दियों मे वार-बार और विविध सिद्धान्तों का ही प्रतिपादव किया है ।
प्रत्यक्ष जगतकी चित्रमय सत्ता को नही, बल्कि इस चित्र के सर्जक को सत्य
त्रताते हुए कबीर एक और सिद्धान्त की बात करते है-- े
३ “जिन यहु चित्र बचाइबा, सो साचा सुतधार |
-.... कहे कबीर ते जन भले, चित्रव॑र्ताह लेहि विचार ॥
: उद्वेत-दर्शन या अन्य दर्शनों की सैद्धान्तिक वातो का प्रतिपादन तो “रमैनी'
में मिलता ही है, कही-कही समाज-जीवन से सम्बन्ध रखने वाले शुप्क-नीरस
वचित्र भी मिल जाते है--- जे
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