कबीर वाणी पीयूष | Kabir Vani Piyush

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Kabir Vani Piyush by कृष्णदेव शर्मा - Krashna Dev Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कबीर : कृतित्व / २३ अतिभा एक तरफ धरी रह गई और सिद्धान्त-विवेचक की प्रतिभा उस पर पूर्णतया हावी हो गई है। कवीर का ब्रह्म मूल रूप मे क्या और कैसा है, सिद्धान्त-प्रतिपादन के स्तर पर 'रमैनी' के अन्तर्भत आने वाली निम्न पंक्तियाँ देखें-- “नां जसरथ धरि औतरि आवा | नां लंका का राव सतावा॥। देवे कोखिन ओऔतरि आया । नां जसवे ले गोद खेलावा ॥ ना वो ग्वालन के सयि फिरिया । गौबरधन ले न कर धरिया।। बावन होइ नह बाले छलिया । धरनी वेद ले न उधघरिया ॥ गंडक सालिगरास न कौला । मच्छ-कच्छ होइ जर्लाह न डौला ॥) बढ़ी वोशि ध्यान नंहि लावा। परसुराम हर खची न सतावा ॥ चारादती सठीर न छांड़ा । जगन्नाथ ले पिंड नगाड़ा ॥ कहै कबीर विचारि करिं, ऐ उनले व्योहार। याही ते जो अगस है, सौ बरवि रहा संसार है न कवित्वहीन, शुष्क-नी रस वर्णन ? महज सिद्धान्त का प्रतिपालन ! स्यात्‌ कवीर की इसी प्रकार (रमैनी) की उक्तियाँ देखकर ही कुछ लोग कहने लगते है कि वे कवि न होकर कोरे चिन्तक, सुधारक और सिद्धान्त प्रतिपादक ही थे। इस प्रकार की उक्तियों को देखकर इससे अधिक और कुछ उन्हें कहा भी कैसे जा सकता है ? देखें--- “अविगत अपरम्पार ब्रह्म, ग्यान-रूप सब ठास ? बहु विचार करि देख्या, कोई न सारिख रास ॥ निश्चय ही रमेनी के इस प्रकार के पदों का हृदयग्राही कविता के साथ कोई सम्बन्ध नही । इनमे कवीर ने युगीन परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी तुकबन्दियों मे वार-बार और विविध सिद्धान्तों का ही प्रतिपादव किया है । प्रत्यक्ष जगतकी चित्रमय सत्ता को नही, बल्कि इस चित्र के सर्जक को सत्य त्रताते हुए कबीर एक और सिद्धान्त की बात करते है-- े ३ “जिन यहु चित्र बचाइबा, सो साचा सुतधार | -.... कहे कबीर ते जन भले, चित्रव॑र्ताह लेहि विचार ॥ : उद्वेत-दर्शन या अन्य दर्शनों की सैद्धान्तिक वातो का प्रतिपादन तो “रमैनी' में मिलता ही है, कही-कही समाज-जीवन से सम्बन्ध रखने वाले शुप्क-नीरस वचित्र भी मिल जाते है--- जे




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