हिन्दी सतसई परम्परा में दयाराम सतसई | Hindi Satasai Parmpara Men Dayaram Satasai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दपाराम की बहुनता र्डृ योग, शान और वैराग्य ये तीनो ही नर प्रश्वति के हैं इसलिए माया के आा्क्पण में फैंस जाते हैं । भक्ति नारी है इसनिए माया उसे लुभा नद्दी सकती है ।* ज्ञानी को मोस अत्यन्त दुवभ है; भक्त वा भक्ति के प्रताप से सहज मे भगवान्‌ प्राप्त हो जाता ह । साल्‍्य तो घुणाक्षर याय है 1 श्रुति में परब्रह्मतत्व वो 'नेति नेति! कहकर पुकारा है । दबाराम भो अपने शुद्धादइंव के अनुसार इसवा समर्थन करते हैं-- श्रुति नेती मरो-अयम, जिगुन अक्षरातीत । सो श्रो गोपोदाय को अधिवादन अगनीत ॥ ४ वेदों में ईश्वर को एक मात्र वर्ता हर्ता कहा गया है।णजों कुछ करता है वही बरता है--उसकी सौला से सब कुछ अस्तित्व म आता है, विरोदित होता है--यतो इमानि भृतानि जायते, येन जातामि जीवाीत, यत्प्रमन्ति। सविर्णा त। दयाराम भी इसी का समर्थन वरते हैं-- श्रीहरि बिन कछु करि हरी; फहूँ सकें नहिं फोय 1 कहि थुति में प्रति का करी, हरि भो गती न होय ॥॥ भ % 3 ६ जो न रुप जयधाम, क्‍यों समव कर तब्यता । एको5ह यहुस।म, भुति निषेध करत न बनें ॥ ३ पुष्टिमार्ग और शुद्धाद्रत के सभी प्रामाणिक अन्धथो था उतवा अध्ययन विशाल था। उसको सभो, परम्पराआ से वे परिचित थे । पुष्टिमाय श्रतिपादित भक्ति वा सबल तर्कों से मण्डन करते थे, शकर मत में जीव वो ही भ्ह्य माना गया है । परतु माया के आवरण के वारण वह अपने स्वरूप को पहचानने में असमर्थ रहता है । शुद्धाह्त मे जीव और ब्रह्म अलग-अलग हैं। एक अग है और दूसरा अगी। दोनो एक नहों,हैं एक होने को सभावना भी नहीं है-- छः के भयो ब्रह्म तें जोय फिरि, भ्रह्म होय कि सुग्ध । ज्यों दधि पयसों होत, सो बहुरि बनें महि दुर्घ ॥ ४४४७ १ पोर प्रधान न भक्त दें, स्वामिनों भक्तो होय । योग ग्यॉन यराज्य भर दे तदाबित तीय ॥ ३१३ २ व० स॒० दो० ३। है व० स० दो० २१ और ३३३। ४ बही। छ इ सं० ३४५ #




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