यात्रा | Yatra

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Yatra by श्री साने गुरु जी - Sri Sane Guru Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र५ हाथ परस्पर के एक दूसरे के हाथ में थे। मित्र दय संस्था में आये | अन्य सब के भोजन होकर गये थे। शेप घना और सखाराम ही वचे थे ) “वयों रे रुपलया, भोजन हो गया ?” सखाराम ने पूछा । “आप भोजन कीजिये, फिर में कर लूँगा।” उसने कहा । “भरे, हमारे साथ ही बैठ जा | आ |” “नहीं दादा, में वाद में बेढूंगा 1” आखिरकार घना और सखाराम दोनो हो बंठे । रुपल्या वहां से भाग गया । दोनो मित्र भोजन कर अपने-अपने कमरे में गये । घता अपने कमरे में चैंठा पुस्तक पढ़ता रहा श्ौर सखाराम विकसित बगीचे में तुकाराम महाराज का एक अभंग गुन गुनाता आसत जमा बैठा था। रात रानी की मोहक तरल सुगंध से सारा वातावरण सजीव हो उठा । ० ० ० आज थ्ञाम की गाड़ी से सखाराम इस संस्था को छोड़ अपने घर जानेवाला था। उसके सम्मान में बलब के सहकारियों की तरफ से भोजन दिया जाने वाला था। घना ने सारी तैयारी की थी । केले के पत्ते, रागोली के स्फूतिदायक चित्र, पूरा ठाठ था । लेकित ऐन समय पर रंग में भंग हो गया । मेरे निकट रुपलया को बैठने दो 1” ससारामने कहा । 7 हम ऐसे नहीं सायेंगे उसको हमारी पंगत में क्या आवश्यकता | आप जानवूझकर हमें प्रप्ट क्यों करते हें? बड़े समदर्शी हैँ, हमें क्या मालूम नहीं? हम बड़ी पुशी से आप के




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