तत्त्वप्रदीपिका | Tattvapradipika

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Tattvapradipika by परमहंस परिव्राजकाचार्य - Paramhans Parivraajakachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिस-पात कर रहे हैं-- तथा चानवधारणज्ञान संशय ? इति बदतो न्‍्यायभूषणकारस्यं वदनसरोरुह व्याहतिहिसाहितम्‌ |? यह लक्षण भी न्यायसार (प्रृ० १) में मिलता है। नयनप्रसादिनी ( प्र० ३९९ ) में कहा हे--“सम्यग्हष्टान्ताभिधानमुदाहरणम्‌” इति भूषण- प्रभृतयों बभाषिरे। यह ठक्षण भी न्यायसार (प्र० १२) में मिछता है। अत' यह निश्चित है कि यहाँ के न्‍्यायभूषणकार न्यायसार-प्रणेता भासवंज्ञ ही है। फिर तो न्यायभूषण नास की व्याख्या के रचयिता भी भासवेज्ञ ही सिद्ध होते हैं। स० स० विन्ध्येश्वरीप्रसाद ह्विवेदी ने जो किरणावढी की (पु० १६० पर) पाद टिप्पणी मे लिखा हे--“भूषणो न्याभूषणाख्यन्यायसूचबृत्तिकारस्तारकिकरक्षायामपि सुस्पष्टतठया समुद्धृतोड- यम्‌ ।? अर्थोत्‌ भूषण नाम हे--न्यायसूत्रों के किसी वृत्तिकार का । उसका उल्लेख तार्किक रक्षा मे बहुत स्पष्ट है। तार्किक रक्षा में भी निम्नहस्थान के प्रसन्ञ से भूषण का उल्लेख किया गया है। निग्रहस्थान का भी पूर्णतया निरूपण न्‍्यायसार मे उपलब्ध होता है। उसकी व्याख्या न्‍्यायभूषण में तो अधिक ही होगा । मेरा यह आग्रह नहीं कि न्यायसूत्रों पर न्यायभूषण नाम की कोई वृत्ति नहीं थी। हो सकती है, किन्तु तत्त्वप्रदीषिकादि ग्रन्थों मे उद्धृत न्‍्यायभूषणकार भासवैज्ञ ही है और न्याभूषण, उन्हीं के न्‍्यायसार की अपनी व्याख्या है । * प्रशस्तपाद ( ४५० ई० ) महर्षि कणाद ने योगाचार-विमूति से भगवान्‌ शज्भूर को असन्न किया। भगवान्‌ शड्टर ने उल्धक के रूप में महर्षि कणाद को पदाथे तत्त्व का उपदेश दिया। महर्षि कणाद ने उस उपदेश को १७० सूत्रों में छिख कर दहन अध्यायों में विभाजित किया। वहीं शाख आज ओछक्य दर्शन या वैशेषिक दर्शन के नाम से असिद्ध है। सूत्रों का क्रम आचाये प्रशस्तपाद को कम रुचा, अत उन्होने सूत्रार्थो को अपने क्रम से रखते हुए, एक स्व॒तन्त्र निबन्ध छिखा, जिसका नाम उन्होने “पदार्थधर्मसग्रह”* रखा | यही “पदार्थ- सम्रह” आज वेशेपिक भाष्य या प्रशस्तपाद भाष्य कहलाता है। इसमे भाष्यकार ने कुछ सूत्रानुक्त पदार्थों का भी निरूपण कर दिया है. एवं सूत्रोक्त अभावादि ग्रपन्न को छोड़ भी दिया है। इस समय इसकी आठ टीकाए मिलती हैं-- ( १ ) व्योमबती--परभशेव व्योम शिवाचार्य (९८० ई० ) की व्याख्या ( व्योमवती ) सबमें प्राचीन मानी जाती है। व्योमशिवाचाय वीरणशैब सम्प्रदाय के प्रतीत होते हैं । (२ ) किरणावढदी--इस व्याख्या के अणेता है उदयनाचाय (९८४ ई०)। इनका परिचय आगे दिया जा रहा है। चित्सुखाचारय तथा ग्रत्यक्स्वरुप भगवान्‌ ने किरणाबढी को बहुश उद्धृत किया है । वेशेषिक दर्शन के विषय में उद्यदाचाय का कहना है-- अतिविरसमसारं मानवार्ताविहीन, प्रविततबहुवे् अक्रियाजालदु स्थम्‌ । 1 निवनननिलिली नल: अलनिभतना जन निनितानकान, ४७७७४ बज 3००००. १काआामता# कातककने--+फकन, हा अल _सलपल०५++नमकतकमतननवत--जि नल... नम... हनी अमपालप+- जनक. .तिनापतततकाकसपका>आ...८+अअ+क- जरमकझओ रनलभा+ १ स्वय प्रशस्तपाद आरपम्म में लिखते हैं--- प्रणम्य हेतुमीश्बर स॒नि कणादमन्वतः | प्रबध्यते. महोदय पदार्थधर्ममग्रहः ||




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