शान्ति - सम्बोध | Shanti - Sambodh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चिन्तामणि रत्ल
मरु मृग सम तुम तृष्णा वश हो माया में भरमाते।
अन्तर्दृष्टि से तुम देखो शक्ति का नहीं पारा। अनंत ......
अपने पास ही सब कुछ है, लेकिन खुद को पता ही नहीं है
और बाहर में खोजते फिर रहे हैं। जब दृष्टि बदले तभी तो अन्तरंग
की निधि को देखने का भाव जागृत हो। संसार के सारे तत्व उपेक्षित हैं
- हेय हैं यानि छोड़ने.योग्य है। उपादेय तो केवल आत्मा है। अनन्त
ज्ञान दर्शन चरित्र की एकनिष्ठ आराधना ही अंगीकार करने योग्य और
ग्रहण के योग्य तत्व है। संसार का प्रत्येक पदार्थ छूटने वाला है।
शास्त्र का विषय :
सुबाहु कुमार के चरण वैराग्य की ओर तो नहीं, लेकिन
आत्मशक्ति की पहचान की ओर बढ़े । उसने अपने जीवन का उद्देश्य
समझ लिया। सुख विपाक सूत्र के वर्णन में आप सुन रहे हैं कि वह
किस प्रकार साधना की ओर उन्मुख हो रहा है। बंधुओं , साधना करने
के लिए साधु बनना आवश्यक है किन्तु ग्रहस्थ भी श्रावकत्रत धारण करके
बहुत से पापों से स्वयं को बचा सकता है। आपको बताया जा चुका है
कि अहिसाद्त और सत्यव्रत सुबाहु कुमार ने सूक्ष्म रूप में समझें और
वे दोनों ब्रत पाव जीवन के लिये अंगीकार किए। तीसरा ब्रत भी वह
समझता है और उसे भी धारण करने के लिए प्रस्तुत होता है। तीसरा
ब्रत है अचौर्यव्रत। श्रावक के लिए पांच अणुब्रत बताए उनमें तीसरा
अचौर्य अणुब्रत है। स्थूल रूप में चोरी न करना यही अचौर्य ब्रत का
मतलब हेै। श्रावक दो करण तीन योग से व्रत स्वीकार करता ह। इसके
अनेक भेद हैं लेकिन मुख्य रूप से तीन भेद हैं - मनसा, वाचा, कर्म
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