संगीतान्जलि भाग - 2 | Sangeetanjali Bhag - 2

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Sangeetanjali Bhag - 2  by पं ओमकारनाथ ठाकुर - Pt. Omkarnath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( है ) भातखण डे ने पदज-मध्यम ओर पदूज-पंचम संवाद को ऋमशः चोथे ओर पॉचवे' स्वर का अंतर मांन लिया है । शाल्यीक्त नव-त्रयोदश-अ्र्‌ त्यंतर की व्याख्या उन्होंने स्वीकृत नहीं की । इतना ही नहीं, पडूज ले चोथा स्वर मध्यम ओर षड्ज से पाँचवाँ स्वर पद्चम--इस क्रम से स्वरों का संवाद वास्तव में होता भी हैं या नहीं, इसकी ओर भी न जाने क्‍यों उन्होंने ध्यान नहीं दिया हैँ। उन्होंने तो केवल स्थूल मान से ही चोथे ओर पाँचवें स्वर को संवादी मान कर तदनुसार अपने राणों में प्रयुक्त वादी स्व॒र॒से संवादी स्वर को चोथे या पाँचवें स्थान पर रख दिया है। इसीलिये ऋषम कोमल के साथ पंचम का ओर शुद्ध घेवत के साथ कोमल ऋषम का संवाद न होने पर भी उन्होंने इन चोथे आर पाँचवें अंतर वाले स्व॒रों को संवाद कर दिया है। हमारी राय में न यह व्याख्या शास्ीय हें ओर न युक्ति संगत ही हैं। भरतादि अन्‍्यकांरों ने नव-त्रयोदश-सश्र्‌ त्यंतरों को ही संवादी कहा हे। वही सत्य संवाद दे । इन संवादी स्वर-जोड़ियों के अतिरिक्त ओर जो स्वर रह जाते हैं, जो पारस्परिक संवाद को पुष् करते हों, विवाद न करते हों, ख्वरों की बादो-संबादी जोड़ियों का अनुगमन करते हों, ऐसे जो स्वर राग में प्रयुक्त होते हों, उन्हें अनुवादी कहा जाता है । जो स्वर इन ४७? ३३ ४ ओर अलुवादी स्वरों से किसी प्रकार का मेल न रखते हों, अपितु विरोध करते हों, उन्हें विवादी कहा है !/ ये विवादी स्तर एक विचित्र प्रकार के कंपन पेदा करते हैं, जिसे अंग्रेजी में ४७७४४ कहते हैँ, जो सारे स्वर-समूह में खलबली पेदा कर देते हैँ। जो सारे स्वर-संवाद के दूध को फाड़ देता है, उसीको विवादी कहा है। शात््र में तो त्रिश्न॒ति ऋषुम के साथ हद्विश्रूति गान्धार ओर त्रिश्रूति घेषत के साथ द्विश्रूति निषाद विवाद करता है, ऐसा कहा है ॥ इसीलिये शाख्त्रकारों ने विवाद को दर्शाने के लिये दो ओर बीस श्र्‌ त्यंतर.को ही विवादी माना हैं ओर उसी का उल्लेख किया है, यथा :-- विवादिनस्तु ते येषां विंशतिस्व॒स्मन्तरम्‌ । तढ़ यथा ऋषमणगान्धारों, धेबतनिषादों | (मरतनाव्यशासत्र पृ०३ १) प्राचीन काल में वीणा पर ही गान-बादन की क्रिया होती थी। इसलिये पर्दे बँधे रहने के कारण आर किसी प्रकार का बेसुरापन होने की संभावना नहीं थी । अतः इन्हीं दो विशेष स्वर-जोड़ियों को प्राचीनों ने विवादी माना है ओर तदनुसार लिख दिया है। वास्तव में इन दो विवादों के अतिरिक्त ओर भी विवाद हो सकते हैं। यथा--जो स्वर-जोड़ियाँ संवादी या अनुवादी मानी हैं, वे पूर्णतया यदि संवाद न करें तो विवादी ही मानी जाएँंगी। जेसे षद्ूज के साथ पंचम का तेरह श्र त्यंतर से संवाद है। यदि यह पंचम ठीक से न 5 लाया जाए, या एक श्रूति कम करके मिलाया जाए, तो वह संवाद न करके विवाद ही करेगा। क्योंकि परस्पर संवाद न होने से भी एक प्रकार का कंप होता दे ओर वह क्ंप इतना कर्णकठ्ु होता हे कि जिसे सुनते ही रोम खड़े हो जाते हैं, ओर मौदिं तन जाती हैं। इसलिये इन संबाद-मिन्न नाढ़ों को भी विवादी मानना चाहिये । रागों में बादी संवादी, अनुवादी ओर विवादी स्वर मानने की परंपरावाले विवादी को शत्रुवत्‌ कहते राग में जो स्वर निषिद्ध हो, उसका प्रयोग निश्चय ही शत्रुवत्‌ माना जाना चाहिये। किन्तु गान-वादन की आ्यताफें. कुशल गुणी ऐसे निषिद्ध स्वरों का भी कभी कभी ऐसी खूबी के साथ प्रयोग करते हें, जिससे राग का यह बहुतढ़ जाता है। इस प्रकार जो राग के सोन्द्र्य को बढ़ावा है, उसे हम शत्रु केसे कह सकेंगे ? इससे है कि शत्रुत्व ओर विवादित्व भिन्न वस्तु है। उपरिकथित विवरण से समझना सहज होगा कि बादी प्रमुवादी, विवादी--स्वरों के इस पारस्परिक सम्बन्धों को दशाने के पीछे शाख््रकारों का क्‍या हेतु था। ग्रह---अश्-- न्थास---संन्यास--विन्यास-- अपन्यास उपरिलिखित पारिभाविक शब्दों की सामान्य व्याख्या 'संगीताझ्लि' के ह्वितीय भाग में दी जा चुकी विशेष स्पष्टता के लिये मतंगक्ृत 'बुहद्देशी में दी हुईं व्याख्या, जो कि कुछ, मिन्न शब्दों में है, यहाँ उद्धंत झा समुचित माना गया है ।




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