सन्देश रासक | Sandesh Rasak
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
244
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आर ,
है। पहले बताया गया है कि कुछ छोग वंशी, मुरज, बीन, काहल, ढोल, म्॒दंग,
खोल आदि सुन रहे हैं | ये साधारण लोग हैं | फिर कहा है कि कहीं प्राकृत-वर्ण-
निबद्ध ( टीकाओं में यह अर्थ है जो चित्य जान पड़ता है, शायद पथवण्णनिबद्धन
पदवर्ण-निबद्ध ) गान सुनाई दे रहा है, यह भी साधारण छोगोंका उपभोग्य है ।
परंतु जो लोग सुसमर्थ हैं, कुछ खर्च कर सकते हैं, वे नर्तंकियों के गान सुनते
हैं और दत्यपरायण नर्तकियोंकी चंचल चारियों का ( जिम्ममें कटीवस्त्र चंचल
हो उठता है ) रस लेते हैं |
२-४६ परिधोलिर
भगहिं काबि मसयविंभल गुरुकरिवरगमणि ।
अन्न रयणताडंकिहि परिधोलिरस्सबणि ॥।
'पपरिघोलिर का अर्थ दोनों टीकाकारोंने 'प्रतिघोलन्त!' किया है जो वस्तुतः
इसी शब्दके संस्क्ृतीकरणका प्रयास है | वस्तुतः इसका अर्थ घूमता हुआ, चकर-
दार फिरता हुआ है। 'गठडवहो'में यह मिलता है ओर 'धोलिर! शब्दका प्रयोग
गाथा सप्तशती' (३, ३८) में मी मिलता है। समराइच्च कहा (५-७८) में भी
यह शब्द इसी अर्थमें है ।
२-४७ णिवडब्मर ( उभरे हुए ? ), नियकोयणिहि
अबर कहव णिवडब्भर घण तुंगत्थणिहिं
भरिण मज्झु णहु तुट्दद ता विभिड मणिहिं ।
काबि केण सम दर हसइ निय कोअणिहि |
( ०सम हसइ नियइ-मइ-कोइणिहि । )
छित्ततुच्छतानिच्छ तिरचिछियलोयणिद्ि !
( ओर कहीं निपण उभरे हुए ( १ ) घन तुंग वक्षस्थल्नों वाली ( सुंदरी भ्रमण कर
रही है ) भार से बीच हीमें नहीं टूट गई, यह आदइ्चर्य है ( लोगोंके मनोंमें )।
कोई किसीके साथ हँसती है थोड़ा-थोड़ा ( ! ) अपने मद कोकुचेंसे ( मदकोंकु-
चाभ्याम् ) (१ ) उन तिरछी आँखों से जिनमें महीन काजल की रेखा लगी
हुई है। )
“णिवडब्मर! का अर्थ एक टीकाकारने “निविड़ोत्तर' किया है दूसरेने 'निवि-
'डोद्घुर' | परंतु दोनोंमे एक भी 'णिवडब्भर'के निकट नहीं जाता । यहाँ “निव-
डब्मर' परवर्ती हिंदीके “निपट! और 'ऊमर'! 'ऊमर्टा ( उभरे हुए ) के संयुक्त
'शब्दका पूर्व रूप जान पड़ता है। 'निवडब्भर' अर्थात् निपट उभरे हुए
तीसरे चरणका पाठ कुछ गड़बड़ माल्म पड़ता है। टीकाकारोंने 'मद-
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