वैयाकरण - सिद्धान्तकौमुदी भाग - 1 | Vaiyakaran - Siddhant Kaumudi Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सन्नाप्रकरणम्‌ ६ श११-अ अ दाशद्दा प्रिडवमनूय सदृतो5नेन विधीयते | अस्य चाष्टाध्यायीं सम्पूर्णो प्रत्यसिद्ध- त्वान्छाखरष्टया गिद्ृतत्यमस्स्येब | तथा च सूत्रमू-- सिद्ध विवरृत अकार को सदृत का विधान इस सूत्र से होता दै। यह सूत्र भष्टाध्याया के सम्पूर्ण सूत्रा में अन्तिम दोोने से “पूरईेत्रासिदम! से असिद्ध है अत इस सूत्र से विपीयमान सदृितत्व का शान किसी भा सूत्र को नही है, उन चार्खा की दृष्टि में ढस्वाकार विशृत ही है । विमर्श--सूत में प्रथम अ विदृत द्वितीय सबूत है सा शान करके दीय॑ नहीं हुआ । अथ्या सूत्र छन्द के समान है 'छद॒सि! छन्द में सभी शास्त्र वैकरिपक हैं अत दौ्ष न हुआ। अमिद्ध विधायक सूत्र निर्देश करते है-- १२-पूर्त्रासिद्धम्‌ ६२1१) «५ अधिकारोध्यम्‌ । तेन सपादसपाध्यायीं प्रति त्रिपायसिद्धा त्रिपाद्यामपि पूव प्रति पर शाख्रमसिद्धम। बाह्मप्रयत्नस्त्वेकादशवा। जिवार सथार खासो नादो घोषोड्घेपोइल्पप्राणो महाप्राण उद्ात्तोडमुदात स्परितस्चेति। सया यमा सय £क # पी जिसर्य शर एप च। एते अ्वासानुप्रदाना अधघोपाश्व यिवृण्पते॥ १॥ कषण्ठमन्ये तु घोपा स्थु सम्॒ता नादसागिन | अयुग्मा घर्गेयमगा यणश्राज्पासव स्मृता'॥ रा धर्गेप्या्याना चतुणों पश्चमे परे मध्ये यमो नाम पूर्वसदशो बर्ण प्रातिशाखूये प्रसिद्ध । पलिकूतनी- | चससनतु | अगगनि । घघुन्तीत्यन्न तमेण कनसवा-धेभ्य परे तत्सटशा एवं यमा | तत्र बगोणा प्रथमद्धितीया स्पय तथा तैपामेय यमा , जिह्मूलीयोपध्मानीयो, विसगे, शपसाश्चेस्येत्तेषा जियार खासो5घोपश्व । अन्येपान्तु सगारों नादो घोषश्च । धगोणा प्रथमद्तीयपद्नमा प्रथमतृतीययमी यरलयाश्वान्पप्राणा । अन्ये महाप्राणा इत्यर्थ । बाह्मप्रयक्षाश्व यय्रपि सवर्णमज्ञायामनुपयुक्ता । वथाप्यान्तरतम्यपरीक्षायामु- पयोद्यन्त इति बोध्यम्‌। कादयो मावसाना रपशों | यरलवा अन्तस्था । शप- सद्दा उ माण । अच ख्थरा | &क # प इति कपाभ्या प्रागर्धविसर्ग शमदेशी जिह्मामूलीयोपध्मानीयी | अ अ इत्यच परावनुस्वारविसर्यी | इति स्थानप्रयत्न- जिवेक । ऋलयणयोमिंथ सावण्य बाच्यम्‌। अकारहफरारयोरिकारशकारयो- लेकारसकारयोश्व मिथ सापण्ण्ये प्राप्रे-- यह अधिकार सूत्र है। सवा सात अध्याय के सूत्रों के सामने जिपादी असिद्ध है। इसका अधिकार अष्टाध्यायी की समाप्ति तक रहता है। इस कारण तिपादी के पूर्व पूर्यशास्त्र को दृष्टि में पर पर गिपादी शास्त्र भौ असिद्ध होते है । बाध्य भ्रयल श्यारदह प्रकार का है। १विवार, २ सवार, ३ श्वास, ४ नाद, ० घोष, ६ अथोष, ७ अस्पप्राण, ८ भद्दाप्राण, ९ उदात्त, १० अनुदात्त, ११ स्वरित इन मेदों से । वर्गों में के पइले चार बर्णों के भागे फ्िसी मी वर्ग का पञ्मम वर्णे आवें तो बौच में एक समान वर्ण अदस्य आता है,




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