संस्कृति के स्वर | Sanskriti Ke Swar

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Sanskriti Ke Swar by मोहनलाल गुप्त - Mohanalal Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेंहदी-महावर मेंहदी के नाम से ही रसिकों के मन में सरस कल्पनाञ्रों की उद्भावतायें होने लगती हैं। सुन्दर नारी भौर मेहदी का परस्पर संबंध है भौर वही हमें उसकी कल्पना से तादात्म्य कराता है। मेहदी की लाली से ही नारी के कर-पल्‍लवो की कूमनीयता झौर एड्रियों की कौमलता में सौंदर्य की प्रभिव्ृद्धि होती है मेंहदी का उपयोग प्राचीत काल से होता चला पा रहा है, परन्तु पहले इसका रूप झ्ालवतक था जो लाख से तिकाला जाता था भोर गहरा लाल होता था । इस रंग को महावर या मद्वावड़ कहते थे । कालिदास के काव्यों में स्थान-स्थान पर झालकतक का वर्णोन भ्राता है । ऋतुसंहार के प्रीष्म बर्णुन में “नितान्त लाक्षारस राग रजितेनितम्बिनीवां चरण सुनूपुरं” स्त्रियों के उन महावर से रगे पैरों को देखकर लोगों का जी मचल उठता है, जिनमें हंसी के समान रुनभुन करने वाले बिछुएं बजा करते हैं। शाकुन्तलम में भी कालिदास ने भद्यावर का वर्णन किया है “निष्ठयुतश्चरणोंपरागसुभगो लाक्षारसः केनचित्‌”---दुष्पन्त के धर जाने के समय सखियो ने शकुन्तला के पांवो में मह।वर लगाई । परों मे लाल चन्दन का भी लेप किया जाता था| सालविकाग्निमसित्र ताटक मै प्रतिहारी राजा से कहता है--“प्रदातशयने देवी निषष्णारक्‍त चन्दन घारिणी” इस समय भहाराती बयार वाले भवन में पलंग पर बँठी हैं, उसके पैर में लाल चन्दन लगा हुआ है । राजा श्रपने मित्र से मालविका के सौन्दय का वर्णन करता है-- “चरखान्तनिवेशिता प्रियाया: सरसापश्चवयस्य रागलखाम प्रथमानिव पह्लव प्रसूति हरदग्भस्यमनो मवद्रुमस्य” प्यारी के पैर में महावर की जो गोली लकौर बनी है वह ऐसी दिखाई पड़ रही है मानो महादेव के क्रोध से जले हुए कामदेव के वृक्ष मे नई- नई कोपलें फूट पड़ी हों। श्राचीन मूर्तियों में मेंहदी का ग्रालेखन दिखलाना सम्भव नहीं था बरना कोई सन्देह नहीं, कारीगर इसका अंकन मूर्तियों मे करते ।




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