आधुनिक हिन्दी कविता की स्वच्छन्द धारा | Adhunik Hindi Kavita Ki Swachchhand Dhara

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Adhunik Hindi Kavita Ki Swachchhand Dhara by त्रिभुवन सिंह - Tribhuvan Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की बात कहकर वाजपेयी ने स्वच्छन्दतावाद और रहस्यवाद पर सोचने के लिये आधार-भूमि दे दी, किन्तु स्वच्छन्द्तावाद और जो कुछ हो, रहस्य नही | उनका कथन है कि 'रोमाटिसिज्म में वस्तु का उदात्त होना आवश्यक नही । सा|धारण-से-साधारण वस्तु मे भी काव्यात्मक चित्रण बनने की क्षमता है। यह स्वच्छन्दतावादी मत है ।” इस प्रकार वाजपेयी जी ने स्पष्ट कर दिया है कि जाख्रोय नुस्खों के आधार पर ही स्वच्छन्दतावादी कवि अपने काव्य की विषय-बस्तु नही चुनता | वह चझूर-सामन्तो तथा राजा-महाराजाओ का हो यज्योगान नही करता, वल्कि वह सबसाधारण छोगो से लेकर छोटी-से-छोटी वस्तुओं तक को भी अपने काव्य का विषय बनाता है। इस साहित्य के अन्दर चित्रण के योग्य वस्तुओ की कोई सीमा नहीं निर्धारित को गई है। इससे अधिक व्यापक ओर भावात्मक प्रवृत्ति पाई जाती है। काव्य मे प्रथुक्त होने वालों का भी कोई बन्धन नहीं है और इसके अन्दर वस्वु तथा शैली में कोई तात्विक भेद नहीं माना जाता | आचाय विश्वनाथप्रसाद मिश्र के मत से स्वच्छन्दतावबाद का अथ होता है, 'सामाजिक बन्धनों को तोडकर जीवक की स्वच्छन्द भूमि मे विचरण करने की छालसा ।”* वे यह मानते हे कि आधुनिक काव्यधारा के आगमन के पूव रहस्यवाद, स्वच्छन्दतावाद और छायावाद, ये तीनो प्रद्ृत्तियाँ साहित्य मे प्रवेश पाने के लिये उतावढी हो रही थी और अवसर पाकर एक साथ ही आयी । तत्कालीन घुटनशील परिस्थितियों के कारण मन सासारिक जोवन से ऊब रहा था, उसने रहस्यवाद को जन्म दिया, सामाजिक रूढियो के कठोर बन्धन को अस्वीकार करने के छिये स्वच्छन्दतावाद का प्राहुर्भाव हुआ ओर छायावाद काव्य शेली के विद्रोह मे ही उठ खडा हुआ है। अभिव्यज्ञना का नूतन विधान छायावाद का सुख्य लद्य रहा है। झुद्ध प्रतीकात्मक और शझुद्ध अभिव्यञ्ञनात्मक रचनाएं छायावाद ही कहला सकती थी। इसलिये जहाँ तक काव्य-विषय का सम्बन्ध है, प्रमुख रूप मे दो ही प्रवृत्तियाँ चछ रही थी जिनमे से एक थी रहस्यथात्मक ओर दूसरी थी स्वच्छन्दात्मक। मिश्रजी के कथन से स्पष्ट छगता है कि रहस्यवाद, छायावाद और स्वच्छन्दतावाद का मूल उत्स एक है और साथ-ही-साथ वे उनका स्वतत्र अस्तित्व भी स्वीकार करते जान पडते है। यदि इन तीनो मूल प्रवृत्तियों का मूछ उत्स एक है, तो उनके अलछग- अलग अस्तित्व स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं जान पडती | या १. प० नन्ददुलारे वाजपेयी, “आधुनिक साहित्य”, पृ० ३९१। 7२ १० विश्वानाथग्नसाद मिश्र, “हिन्दी का सामयिक साहित्य”, ९० ए४ड। स्वच्छन्द्ताबाद १९




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