आचार्य श्री नानेश विचार दर्शन | Acharya Shree Nanesh Vichar Darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
242
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समता-दर्शन [११
. सृष्टि के दो प्रमुख घटक॑ हैं; चेतनामय जगत् और अचेतन सृष्टि । जेन
दर्शन की भाषा में चेतन एवं जड़, सांख्य दर्शन के शब्दों में पुरुष और प्रक्नृति,
वेदान्त के चिन्तन में ब्रह्म एवं माया का विस्तार कहा जाता है।
उपयुक्त दोनों तत्त्वों के अन्वेषण की मुख्य दो परम्पराएँ कायम हो गई
हैं और वे दो परम्पराएं ही निरन्तर प्रवहमान सरिता की तरह दर्शन-जगत् की
दो धाराएं बन गई हैं, एक पाश्चात्य और दूसरी पौर्वात्य । पाश्चात्य दर्शन
भौतिक तत्त्वों के विश्लेषण की गहराई में पहुंचे, तो पौर्वात्य दर्शन चेतन-
आत्म तत्त्व के अन्वेषण की दिशा में प्रवृत्त हुए। इसी दृष्टि से भारतीय
सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित सभी पोर्वात्य दर्शनों को आत्मवादी दर्शन
कहा जाता है ।
भारत के प्राय: सभी दर्शनों का प्रमुख ध्येय आत्मा और उसके स्वरूप
का प्रतिपादन करना रहा है। चेतन एवं परम चेतन की सत्ता को जिस समग्रता
एवं सूक्ष्मता से भारतीय दाशेनिकों ने समभने-समभाने का प्रयास किया, वह
अपने आप में अनूठा एवं अतुलनीय है ।
जेन-दर्शन
सभी भारतीय दर्शनों में जेन-दर्शन का अपना गौरवमय स्थान है।
आत्म-तत्त्व की विवेचना में तो उसका सानी कोई दर्शन है ही नहीं, क्योंकि
दिव्यद्रष्टा प्रभु महावीर का अध्यात्मवादी दर्शन “आत्मा” का ही दर्शन है ।
प्रभु महावीर के उपदेश “से श्रायावाई, एगे आया” जसे आत्मवादी स्वरों से ही
प्रारम्भ होते हैं। आत्मा के संदर्भ में जितनी सूक्ष्म मीर्मांसा जेनागमों में उपलब्ध
होती है, उससे सहज समभा जा सकता है कि आत्मा का स्वरूप-विवेचन
महावीर का प्रमुख प्रतिपाद्य रहा है। इतना होने पर भी वह श्रात्मा-सम्वन्धी
चिन्तन केवल विचारपरक नहीं रहा । विचार के साथ आचारनिष्ठा महावीर
दर्शन का प्राण है। महावीर का दर्शन केवल विचारों का एक कोष नहीं, अ्रपितु
जीवन जीने की कला है। वहाँ केवल सत्य की अन्वेषणा नहीं, उसके साथ
रमणता (आत्मासात् हो जाना) भी अनिवांय मानी गई है ।
यही कारण है क वेदान्त और मीमांसा, महायान और हीनयान, सांख्य
और योग की तरह महावी र-दर्शन, दर्शन और धर्म दो भागों में विभक्त नहीं
हुआ और न वहाँ किसी प्रकार का विरोध ही उपस्थित हुआ | दर्शन और धर्म
वहाँ विचार और आचार के रूप में परस्पर पूरक, सहचर अथवा सहगामी रहे
हैं । महावोर-दर्शन में विचार के साथ आचार की भी अतुलनीय महिमा तथा
गरिमा है। दर्शन द्वारा विचार प्रस्फुटन और तद्द्वारा तत्त्व प्रतिपादन होता है,
तो धर्म उसके क्रियान्वयन किया अनशीलन पर बल देता ह | '
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