उल्का | Ulka

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Ulka  by नीहार रंजन गुप्त - Neehar Ranjan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उत्का बे झपने अनजाने ही एक प्रार्तनाद कर घोर घृणा से एकाएक दो कदम पीछे हट झाया । सिर्फ दो अस्फुट दर्द भरे शब्द उसके काँपते होंठों से निकले, यह कया ! यह वया ! और अगले ही क्षण दोनो हाथों से मुंह ढॉपफकर लडखड़ाते हुए राजीव कमरे से बाहर निकल आया । सिर के भीतर सारे स्तायुकोप मानों उस समय एक प्रवल कम्पन से ववडर मचाये हुए हों । धुणा, निराशा, व्यथंता, भाकोश, लज्जा श्रौर दु ख, ये सारी अनुभूतियाँ मान्रों एक ही साथ उसके चेतन मन को चारो ओर से आषात पहुँचा कर उसे उसी दम पागल बना देना चाहती हो। यह व्या हुप्रा ? वया देखा उसने ? वाकई देखा है या कही ग्ाँखो की भूल तो नही है । वह जाग रद्वा है या कही नींद में कोई दु.स्वप्न तो नही देख लिया है । यह भी क्या मुमकिन है ? श्रादमी । किसी आदमी का वच्चा क्या कभी इतना कुरूप, वीभत्स प्लौर भबकर हो सकता है ' बहू, वह राजीब की प्रथम सन्तान है। उसके इतने दिनी की कल्पना और इतने स्वप्नों का वास्तव रूप है। नहीं। नहीं-वह्‌ क्या झ्रादमी का बच्चा है, एक बीभत्स मासपिंड मात्र है। प्राणी-जन्म का एक निदंय मस्नौल है । उ्ू ! बया देखा राजीव ने ? क्या देखा उसने ? साथ ही साथ उसे लगा कही यह स्वप्न तो नही है । दृप्टि-अम तो नही है । कही उसने गलत वो नही देखा । बह रहा उसका बच्चा । उसकी इतनी कल्पना, इतनी अधीर प्रत्याशा की यह प्राप्ति । डगगमंगाते कदमों से ही वेबोल राजीव कमरे मे आकर एक लम्बी रात और एक दिन के बाद मायूस की तरह धप्प से सामने के एक सोफे पर बंठ गया । सारी चेतना भ्रौर अनुभूति में एक प्रचठ उयल-धुथल मचाकर उसे समय उसके मस्तिष्क के स्मायुक्रोपों में मानो एक आग का दरिया बहने लगा। एक




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