कुमुदिनी | Kumudini

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Kumudini by रवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravindranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छुमुढिनी र७ “सुधर स्थामफी मधुर बॉँसुरी छीन कष्ट घरि देहु। के छांडो हो ही बृन्दावन अनत वसेरो छेंहु। * राबू, ब्रान्डी ले आ।”? मु कुमुदिती पिताके मुँहड्ी ओर झुक़क़र बोली--“बाबूजी,, यह क्या कह रहे हो ९”? मुऊुन्दलालने भाँसे सोलकर देसा , ऐसते ही दाँतो तले जीभ 'दबाऊर रह गये । हालाँ कि घुद्धिने मिछकुछ जवाब दे दिया था, लेकिन फिर भी यह वात वे न भूले कि कुमुदिनीफे सामने शराब नहीं चछ सकती। जरा ठहरकर फिर गाना शुरू जिया। “बृल्दावनमे कोन निठुर है, मुरठी रहो बजाय ९ कहा करूँ में हाय सी री, धरमे रक्मो न जाय ९ इन विखरे हुए गानोके दुकडोको सुनकर कुमुदकी छाती फटती है,--मापर गुस्सा आता है, पिताके पैंगेंफ़े नीचे सिर रखकर मानो माफी ओरसे बह माफी माँगना चाहती है ॥ मुडुन्दुलाल सहसा वोछ उठे--“दीवानजी ।” + बगलामें है --“कार वॉशी ओइ वाजे इन्दाबोने २ सोई लो, सोई घेरे आमि रह्यो कैमोने ?”? बगलानें हे --“श्यामेर वाशी काड़ते दबे नोइ्ते आमार ए इन्दाबग छाड़ते हाँवे।!!




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