महादेवी का काव्य | Mahadevi Ka Kavya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काप्म-कशा | २७ डूघरे तड़ पहुँचामे में समर्थ है। अपने शगुमयों की गहराई में बहु शिस जीशस-सरप से साक्षाद्‌ करता है उठे दूसरे के शिए संबेदरीम वगाकर कहता सता हैं, 'यह सौन्दर्य तुम्हारा ही तो है पर मैं बाज देश पावा ! चोवद को स्पर्श करने का उधका दग ऐसा है कि हम उसके सुश-दुझ्न हर्पे-विदाद हार-बीत सबजुछ प्रसन्‍्ततापूर्षक ही स्त्रीकार करते है-- दूसरे शब्दों में हम बिता छोजने का कष्ट उठाये हुए ही कश्ताकार के सत्य में बाते आपको पाते हैं। पसरे के बोडिक निष्कप तो हमें झपने भीठर उनका प्रतिबिम्द घोजने पर बाध्य करत हूँ परन्तु मलुपृ्ति हमारे हृदय से तादारम्य बरने प्राप्ति का सुर देवी है। उपरेशों के बिपरीष्ठ रथ क्यामे श्रा सकते हैं, तीठि के अगुबाद अ्राप्ठ हो सकते हैं, परन्तु छक्ष्दे कशाकार भी सौरदर्म-सृप्टि प्र अपरिचित रह लासा एम्मद है बदस लामा सम्मग तहीं। मसु को जीवस-स्मृतियों में अतर्श की सम्मागना है पर आश्मीकि का शोगग-दरास इसेपहीस दी रहेगा । इसी से कस्सकारों के सठ नहीं तिमित हुए, महसम्त नहीं प्रतिष्थिद हुए, साजार्प महीं स्वापित हुए और सस्राट महीं शमसिपिक्त हुए। कदि या कसाहार अपमी सामाम्मता में ही सबरा ऐसा मपना शव पया कि समय समय पर धर्म नीति मादि को बीवन के निकट पहुँचने के घिए, उससे परिद्रय-पत्र माँगता पड़ा। कबि में शानिक को फोजता बहुत सावारण हो गया है। बह तक सहय के मूस शप का सम्दर्ध है वे दोतों एक-दूसरे के मणिक तिकट हैं मदश्य पर साशस औए प्रगोर्णो कौ दृष्टि से चनका एक शोमा सहज महीं। दार्शनिक बुद्धि के निम्त स्तर से अपनी श्लोग आरण्म करके उसे सूकम मिम्दु तक पहुँचाकर धस्तुप्ट हो जाता है--उछ की धफल्ता गही है कि मूक सत्प के उस रूप तक पहुँचने के शिए बही भोटिक दिश्या सम्म रहू | जर्तजपत्‌ का पाए बैमप परणशकर सत्य का मूल्य आँकते का उसे मबकाए नहीं भाष की गहराई में डृंदग र जीबन की भाह केसे का उसे शिकार तहीँ। बहुतो डिम्दन-अपत्‌ का शविकारी है। डड्धि अम्तर का श्ोप कराकर एकठा का मिर्देष करती है और हृदय एकता को अनु पूति देशर अन्तर बी भोर सगेस करता है। परिशामत' बिस्तर कौ बिपिम्न रेयार्शो का समानास्तर रहना भरिवार्य हो लाता है (सांस्य शिस रेखा पर बड़क र॒ शदय कौ प्राप्ति करता है, वह बेदास्स को अंगीकृत मे होगी और बेदात जिस क्रम से अलकार सत्य तर पहुँचता है उसे योम स्वीकार म कर सकेगा। कांप्प मैं बुद्धि हृदम से अगुशासित रहकर ही सक्रियता पाती है इसी से घखऊ़ा दशनः हे बोडिक दर्द प्रभाली है मौर न सूद्म दिन्दु शक पहुँचाने बासी मिध्वप विच्यार-पदधति १ बहू ठो जोदत को प्रेत॒मा और अस्‌ शूति के समस्त बैमब के साथ स्वीकार करताहै। अत कबि का दणम बज के प्रति इसको आस्मबा का दूसरा साम है। इसने में चठना के प्रति मास्विद थी स्थिति सी सम्मद है परस्तु काष्य में अुभूदि के प्रति ऋिश्याती वि डी स्पिति असम्मव ही रहेगी। फीगन है अस्तिरइ को घून्य प्रमाथिस करने भी दा विक्र बुदि के सूद दिग्ू पर गिभास कर शकता है परत्तु यह मस्वीक्षति कृदि के अस्वित्द को शत पै टूटे प कौ स्थिति दे देती है। दोगों का मूछत अम्दर ते चागक र ही इस हिमी मी ढुसादार में शुझे रो एक इप ए+ रिएा बाली रेा ईंढने का प्रषाछ करसे है जौर अगष्स होने पर सीम बटते हैं;




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