निर्बन्ध महासमर | Nirbandh Mahasamer
श्रेणी : साहित्य / Literature

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12.7 MB
कुल पष्ठ :
278
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ही द्रोण विदककर परे हो जाते और उनके पीछे नथुने फुलाते हुए कृपाचार्य चले जाते ।
उनके साथ होता अश्वत्यामा अपनी दुम हिलाता हुआ। इन लोगों ने अपने वाप का
राज समझ रखा है और युद्ध के इस संकटपूर्ण काल में मैं उनका विरोध कर नहीं सकता ।
सब अपना-अपना मूल्य माँग रहे हैं। तनिक-सी वात पर तुनककर पांडवों की ओर चल
देंगे। युद्ध का समय न होता तो मैं इन तीनों को उनका उचित स्थान दिखा देता । इस
समय तो जिसको देखो, वही अपना भाव बढ़ा रहा है।”””
“प्तुम चिंता मत करो मित्र !” कर्ण बोला, “तुम उनको सेनापति वना दो । मुझे
तनिक भी चुरा नहीं लगेगा। मैं मानता हूँ कि वे वृद्ध हैं। उनके पास समय कम है।
आज हैं, कल नहीं भी हो सकते । उनको मुझसे पहले सेनापति वनना चाहिए। मेरे लिए
अपना सेनापति वनना महत्त्वपूर्ण नहीं है। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है तुम्हारी विजय !”
“तुम मेरे वास्तविक मित्र हो, इसलिए मेरे मन की बात समझते हो।” दुर्योधन के
स्वर में असाधारण माधुर्य था, “द्रोण के सेनापति होने के और भी लाभ हैं। अर्जुन
किसी भी स्थिति में अपने गुरु का वध नहीं करेगा । द्रोण सम्मुख होंगे तो अर्जुन का
परम शीर्य प्रकट नहीं होगा ! हमारे लिए बहुत आवश्यक है कि अर्जुन का शौर्य किसी
न किसी प्रकार दवा रहे।” दुर्योधन ने कर्ण के कंधे पर हाथ रख अत्यंत आत्मीयता
से कहा, “मेरे मन में दो एक लक्ष्य हैं, जो आचार्य के माध्यम से पूरे हो सकते हैं।
एक वार वे पूरे हो लें तो मैं द्रोण और कृपाचार्य को उठाकर बाहर फेंक दूँगा। यदि
अश्वत्थामा भी उनके साथ जाना चाहे तो जाए। मैं भूला नहीं हूँ कि विराटनगर के युद्ध
में अपने पिता के सम्मान की रक्षा के नाम पर वह किस प्रकार मुझसे लड़ पड़ा था।
कितने अपमानजनक टंग से”””
“नहीं ! नहीं -! इसकी क्या आवश्यकता है।” कर्ण बोला, “मैं जानता हूँ, तुम्हारे
मन में मेरे लिए कितना प्रेम है। वैसे तो मैं स्वयं अकेला ही पाँचों पांडवों और धृष्टदुम्न
के लिए पर्याप्त हूँ, किंतु इतने वड़े युद्ध में अनेक प्रकार के योद्धाओं की आवश्यकता
होती है। और फिर पिछले तेरह वर्षों से आपने इतने राजाओं के साथ जो मैत्री की
है, उसका निर्वाह किया है, वह इसलिए तो नहीं कि युद्ध के अवसर पर मेरे मोह में
आप योद्धाओं को अपने से दूर कर दें। हमें उन सबकी आवश्यकता है।”
“इसीलिए तो वक्ष पर पत्थर रख कर सब कुछ सहन कर रहा हूँ, अन्यथा रंगमूमि
में तुम्हारा अपमान करने वाले कृपाचार्य को मैं अपने निकट भी फटकने देता ?” दुर्योधन
ने कर्ण की ओर देखा, “तुम्हें स्मरण है, जब तुमने अर्जुन को दंद्र युद्ध के लिए ललकारा
था तो इसी कृप ने तुमसे पूछा था कि तुम कौन हो ? तुम्हारी जाति क्या है ? तुम्हारा
परिचय क्या है ? मेरे मन से तो वह उसी दिन उतर गया था। यह तो युद्ध की ही
वाध्यता है कि मैं ऐसे लोगों को भी अपने हदय से लगाए हुए हूँ, अन्यथा” ।”
“कोई वात नहीं राजनू !” कर्ण ने उसकी बात वीच में ही कार दी, “पहले हम
पांडचों से निवट लें, फिर-इने लोगों का भी प्रबंध कर लिया जाएगा ।”
निर्वन्ध : 17
User Reviews
Dinesh Kumar Sadhnani
at 2020-06-13 04:25:09"Please upload complete version"