शान्ति सम्बोध | Shanti Sambhodh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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' धम्मों सम्यस्मूलो [5 !मूति की बड़ी श्रद्धा थी उनके मन में। चौपाल में सब व्यक्ति 'ग्राकर इकट्ठे होते, वहीं भजन-कीत्तेन और सत्संग का कार्यक्रम ' चलता था । एक दिन की बात है, एक साधु घूमते हुए वहाँ झा । पहुँचे । उस समय दोपहर का समय था । तेज धूप पड़ रही थी । ' संत ने ग्रामीणों से कहा - “अरे भले श्रादमियों, खुद तो धूप में स्ले हट कर बैठे हो और मूर्ति पर धूप झा रही है। अपने आप तो छाया पसंद करते हो । मूर्ति को भी छाया में रखो ।” लोग उठे मूर्ति पर छाया कर दी । भजन फिर से चालू हो गया। संत तो गञागे चले गए। दो-तीन घंटे बीते होंगे कि एक श्लौर संत उधर को आ निकले। मूर्ति पर छाया थी लेकिन सूर्य के दिशा परिवर्तन के कारण चौपाल की सारी जगह में धूप फैली थी। वे संत कहने लगे - “भगवान को छाया में रखा है। अरे, भगवान को छाया की क्या आवश्यकता है ? वे तो सभी को छाया देते हैं। वे तो अण-अ्रणु में व्याप्त हैं। छाया हटाओश्रो भगवान के ऊपर से ।” गाँववालों ने छाया हटा दी । कुछ देर बाद एक तीसरे महात्मा आए । उन्होंने भी मूर्ति पर कुछ टीका-टिप्पणी करनी चाही । गाँववालों ने उनकी बात ही सुनने से इन्कार कर दिया । बन्धुगरों, इस तरह श्रद्धा विचलित हो जाती है। सम्यग्दर्शन हो जाने के वाद किसी प्रकार की कुश्रद्धा और मिथ्यात्व नहीं होने पाता। सम्यग्दशन से सम्यग्ज्ञान पुष्ट होता है। सांसारिक कार्य




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