शक्ति शंखनाद | Shakti Shankhnaad

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Shakti Shankhnaad by लक्ष्मीचन्द्र - Laxmichandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ पतितपुञ्ञ भ्रत ख्य समा गये बस छट्टा एनपावन द्वादु में । रस नहीं तकते निन् नाम भी नद समावर डिस्तृत सिख्यु में ॥ उचित श्रासन वेदवस्ष्ठि को ध्वन्शाततन बाहुबलिप्ठ को । घन मद्दाजन उयमनिष्ठ को गुण दिये जिएने अ्मनिष्ठ को ॥| भारतीय सप्नाटू छुरध के शासन बाल में भारतवर्ष का प्लो भव्यरूप कवि ने प्रदर्शित किया ह उ8में राष्ट्र के प्राचोन वैभपशाली नौवन की वास्तविक ऋक है। २ द्वितीय में भारत पर श्राक्रमण करने वाले कोलाविध्व॑ध्ियों को 'पलेच्छा। पवेतवापिन ” इस देवी भगव॒त की उक्ति वे अनुसार स्लेच्डु ' इतलाया गया है | उस समय ग्हेच्छों से मिलकर देशद्रोह बरने वाले छामन्व मन्त्रियों को उपमा उन बासीं से. दी गई है जो अपने ही वश का माश फरने के लिए दावारिन उत्पन करते ईं-- स्वदेश ही करण ६ दवार्ति में विनाशकारो निबर धेशुबंश के ॥ विदेशी शासन को चलाने वाले राजरुम चारियों दो कवि ने कुत्तों से भी निकृष्ट बतलााया है->- क्षण उसी का करने अ्रनिष्ट वे रददे सदा से जिस देश में पले। अनाय॑ ऐसे अरिदास रूत्य से शुजन्तु भी हुक्‍्कुर ई कहीं भले ॥ पराजित हामे पर भी राजा सुरथ अपने स्वामिमान फो नहीं स्यागता है और यह सृगया का बहाना परवे सुमेघा रइष के ग्राभम में चला भाता है| वहा स्वामिमान व विषय में यह सूक्ति थरत््यात सुन्दर है ।-+ विपत्ति मे बन्धु निज्ाभिमान द मनुष्य का रक्षक एक श्रव में ॥




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