जीवित हिन्दी | Jeevit Hindi

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Jeevit Hindi by लक्ष्मीचन्द्र - Laxmichandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अमावस्या की रात्रि श्फ चसक थी जो शीत्र स्वार्थ के विशाल अन्धकार में लीन होगई। (४) वहीं अप्तायस्या की रात्रि थी । वृक्षो पर भी सन्नाठा छा गया था । जीतने वाले अपने वच्चो को नींद से जगा कर इनाम देते थे। हारने वाले अपनी रुष्ट और क्रोघित स्त्रियों से क्षमा के लिए प्रार्थना कर रहे थे | इतने से घण्ठों के लगातार शब्द वायु और अन्धकार को चीरते हुए कान मे आने छगें। उत्त की मुहावनी ध्वनि इस निस्‍्तव्ध अवस्था मे अत्यन्त भली प्रतीत होती थी । यह शब्द समीप होते गये और अन्त में परिडत देयदत्त के समीप आ कर उस के सणड- हरे मे ड्व गये। परिडत जी उस समय निराशा के अथाह समुद्रमे गोते सा रहे थे शोक मे इस योग्य भी नहीं थे फ़ि प्राणो से भी अधिक प्यारी गिरिजा की दवा दरपन कर सकें | क्या करे | इस निप्ठुर वैध को यहा कैसे छावें ? जालिम मैं सारी उमर तेरी गुलामी करता। तेरे इश्तिहार छापता । तेरी दवाइया कूटता । आज परिडत जी को को यह हासमय ज्ञान हुआ है कि सत्तर छाप की चिट॒ठी-पत्नियाँ इतनी कौडियो के मोल की भी नहीं ) पैठक प्रतिष्ठा का अहकार अब आएों से दूर हो गया। उन्हों ने उस मसमली थैले को सन्दूफ़ से बाहर निकाछा और उन चिट्ठी पत्नियों को जो बाप दादे की कमाई का शेपाश थीं, और प्रतिप्ठा की भाति जिन की रक्षा की जाती थी, वे एक एक कर के दीया को अपण फरने लगे। जिस तरह सुस्त और आनन्द से पालित शरीर चिता की सेंट दो जाता है, उसी प्रफार यह कागजी पुतलियाँ भी उस प्रज्ज्यलित दीया के घधकते हुए मुद्द का आस बनती थीं। इतने में किसी ने चाहर से पशिठत जी को पुकारा । उन्हों ने चौंक कर सिर उठाया। वे नींद से जागे;




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