बुद्ध चरित्र | Buddha Charitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५४ ) का रहना इतिहास-प्रसिद्ध है । वि० सं० १३४३ के लगभग अ्लाउद्दीन गद्दी पर बैठा था। अब हम्मीर के समय में या उनके कुछ पीछे बने हुए पद्मों की भाषा को खुसरो की भाषा से मिल्ला कर देखिए । हो सकता है कि खुसरो की कविता फारसी अक्षरों में लिखी जाने के कारण अपने ठीक रूप में न ऋ सकी हो, पर कहाँ तक फक्‌ पड़ा होगा । पहली प्राणप्रतिष्ठा अब बोलचाल को चलती बोलियाँ दबी न रह सको । मिथिला में विद्यापति ठाकुर ने अपने प्रदेश को बोलचाल की भाषा को आ्रागे किया ओर उसमें सरस कविता करके वे मैथिल कफोकिल कहलाए | इधर व्रजभूमि के कवियों की कृपा से काव्यभाषा का ब्रजत्व बढ़ा! जो भाषासाहिट की भाषा बन कर बेलचाल की भाषा से कुछ अलग अलग बड़ी ठसक से चल रही थी वह त्रजमंडल् की चलती हुई भाषा के प्रवाह में डुबाई गई जिससे उसमें नया जीवन आ गया, वहै निखर कर जीती जागती भाषा के सेल भें हो गई । पर इस बोर में भी काव्यभाषा के परंपरागत पुराने रूप कुछ न कुछ साथ लगे रहे, या यों कहिए कि, जान बूक कर रख लिए गए। जासु? तासु! नाह!, 'इंछन?, 'दीह?, लोयन”?, आदि बहुत से पुराने पड़े हुए, बाोलचाल से उठे हुए या अप्रचत्षित प्राकृत साहिद से शाए हुए शब्द तथा शब्दों के कालवाचक अर कारकसृचक रूप ( जेसे, शोभिजै, कहियत, आवहिं, करहिं, रामहिँ ) परंपरा




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