आत्म प्रबोध | Aatam Prabodh

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Aatam Prabodh by चुन्नीलाल जी - Chunnilal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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.. भाषा टीका । (२१ ) .. सौखना या बोलना नहीं फर सकता तब गुरू महराज वोले तुम को शास्र आता नहीं इस वास्ते मत पढ़ो तुम केवल मारुस और मातुस यह पद पढ्ो परन्तु तो भी वह साधू घुद्धी के मलीन पने सेती उतने वाक्यों फो भी पढ़ने समर्य नहीं हुआ फेबल शरू की आशा प्रमाण फरके आत्मनिन्दा करके उत्तम भावना भाता हुआ घधनघाती चार कर्मो' को ख़पा करके केवल ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष को गया इस माफिक आज्ञा रुचि जानना चाहिये अब सूत्र रुचि दिखलाते हैं सूत्र कहिये अंग उपंग आदिक लक्षण को सूत्र कहना चाहिये उस फरके पैदा हुई रुचि यह भाव जानना चाहिये कि सिद्धान्त अध्यन करते समय उसी सिद्धान्त करके सम्यक थ्राप्त हो जाता है प्रसस्थ अ्रव्यवसायों से याने अच्छे अभिम्ाय से भ्रद्धा हो जाती है गोविन्द घाचक की तरह से सूत्र रुचि जानना गेसे कोह पक गोविन्द नाम से सावय मत का भक्त था वह जिनागम ग्रहण करने के लिये कपट से यती होके आचार्यों' के पास सिद्धान्त ग्रहण कर रहा है परन्तु अप्यन करती ठफे परिणाम विशुद्ध म्कट होने से सम्यक्त पाके शुद्ध साधू होके आचाये हो गये इस पाफिफ सूत्र रुचि समझ लेना अय बीज रुचि दिखलाते हैं जँसे एक वीज के वोने से अनेक घीज पैदा होजाता है इसी माफिक एक पद के अनेऊ पद का बोध होजाना उस करके रुचि पैदा हुई आत्मा फो एक पद संवन्धी रुचि पैदा होने से अनेक पदों पर रुचि होना उसी को बीज रुचि कहते है अथवा जल में तेल के पिन्दु फी तरह जैसे जलके किनारे रहा हुआ तेल का पिन्‍्दु सब पानी को ढाऊ देता है इसी दृष्टान्त करके जानना तत्त के एक देश में रुचि हुई थी परन्तु आत्मा के क्ञय उपसम सेती तल में रुचि हो गई उसको बीज रुचि कहते हैं अप अभिगप रुचि कहते है अभिगम फहिये विशेष जानपना उस करके” रुचि होना तथा छय द्रव्य को जानना आचारांग आदि सूत्र छा जानपणा उपयादिकादि उपांगों का जानपणा उत्तराधेनादि प्रकी्े का जानपणा होना उसको अभिगम रुचि कहते हैं अप्र विस्तार रुचि कहते हैं विस्तार समस्त द्वादशागी को सात नय करके भावार्थ को विचार करना तात्पये इस का यह है कि जिसने छय द्वव्यों का सर्व परियाय करके सर्वत्र प्तादि प्रमाण करके सर्च नैगमादि नय करके यथा योग्य जानकार हो जाना उसको विस्तार रुचि कइना चाहिये अय क्रिया रुचि फहते हैं क्रिया किसे कहते हैं कि उत्तम संयम अनुष्टानादिक उसमें रुचि होना इससे कहना का पतलव यह है कि जिसके भाव फरके ज्ञान दर्शन चारियादिक में रुचि होना उस को क्रिया रुचि कहते हैं अव संत्तेप रुचि दिखलाते हैं संक्षेप नाथ संकोच का है उसमें रुचि होना कहने का मतलय यह कि विस्तार अर्य का जानपणा नहीं है जो जीव




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