श्रीमद्भगवदगीता यथारूप | Srimadbhagbadgita Yatharup
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
450
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)खप्तईशीन [७
जीव उसके द्वारा नियखित हैं। पराधीन होते हुए भी जो जीव अपने को स्वतत्र कहता
है, वह अवश्य उन्मस है। कम से कम बड़ावस्था में ते जीथ प्रत्यक्ष रूप से सर्वथा
परतनत्र ही है। अतएव भगवदूगीता में दोनों, ईश्वर-तत्थ का और जीव-ततथ का
प्रतिषादन किया गया है। साथ में, प्रकृति, काल और कर्म का भी इसमें विवेखन है।
ब्रह्माण्डीय सृष्टि नाना प्रकार की क्रियाओं से परिपूर्ण है। जीव भौतिभौति के कर्म कर
रहे हैं। भगवरद्गीता से हमें जानना है कि ईश्वर-तत््व क्या है ? जीव-सत्य कया है?
प्रकृति क्या है ? ब्रह्माण्डीय सृष्टि क्या है और किस प्रकार काल द्वारा नियत्त्ित है ?
तथा जीवों के कर्मों का स्वरूप कया है?
भगवदूगीता में स्थाफ्ति किया गया है कि पौंच प्रतिपाद्य तत्त्वों में भगवान्
श्रीकृष्ण अथवा परमन्रह्म अथवा परमेश्वर अथवा परमात्मा सर्वप्रधान हैं। यह सत्य है
कि परमेश्वर और जीव समान चिद््गुणों वाले हैं। उदाहरणार्थ जैसा गीता के
अनुवर्ती अध्यायों में कहा गया है, श्रीभगवान् संसार, प्रकृति आदि के नियन्ता हैं।
प्रकृति स्वत नहीं है; वह श्रीभगवान् के नियन्त्रण में क्रिया करती है। भगवान्
श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है, ' प्रकृति मेरी ही अध्यक्षता में कार्य करती है।' अपरा प्रकृति
में अदूभुत घटनाओं को घटित होते देखकर हमें यह समझ लैना चाहिए कि इस सब
के पीछे एक ईश्वर (नियन्ता) अवश्य है। कोई भी जअस्तु बिल्कुल स्वतन्त्र नहीं हो
सकती। अत. नियन्ता को भुला देना बालोचित प्रमाद ही होगा। किसी पशु-बल के
बिना चलने वाला स्वचालित यन्त्र एक शिशु के लिये विस्मयकारी हो सकता है, पर
बुद्धिमानू उसकी संरचना को जानता है कि वाहन के पीछे एक मनुष्य चालक का हाथ
है। इसी प्रकार श्रीभगवान् एक ऐसे यालक हैं जिनके निर्देश में सब कार्य कर रहे हैं।
गीता में श्रीभगवान् ने जीव को अपना अंश कहा है। स्वर्ण का एक कण भी स्वर्ण ही
है और सागर का एक बुंद जल भी खारा होता है। इस न्याय के अनुसार, परमेश्वर
श्रीकृष्ण के भिन्न-अंश हम जीवों में भी उनके समान गृण हैं, किन्तु हममें इन गुणों का
अति अल्प अंश ही विद्यमान है, क्योंकि हम लघु ईश्वर हैं। हम प्रकृति पर प्रभुत्य के
लिए प्रयत्मशील हैं, जैसे वर्तमान में अन्तरिक्ष तथा ग्रहों पर आधिपत्थ करने का प्रयास
चल रहा है। यह प्रव॒त्ति मूल रूप से श्रीकृष्ण में है और इसीलिए हममें भी है। माया
पर प्रभुत्व करने की इस प्रवृत्ति के होते हुए भी हम यह जान लें कि हम परमेश्वर नहीं
हैं। भगवदगीता यही सिखाती है।
भौतिक प्रकृति क्या है? भगवदूगीता में इसे 'अपरा' प्रकृति कहा गया है।
जीवतत्व 'परा प्रकृति' है। प्रकृति परा 'है अथवा अपरा, वह नित्य परमेश्वर के
आधीन है। ' प्रकृति' स्त्रीलिंग है तथा श्रीभगवान् के द्वारा उसी भौति नियन्त्रित है, जैसे
पत्नी की क्रियाओं का पति नियन्ता होता है। प्रकृति नित्थ श्रीभगवान के आधीन रहती
है, जी उसके अध्यक्ष हैं। इस प्रकार परा (जीव) तथा अपरा, दानों ही प्रकृतियीं
श्रीभमगवान् के आधीन हैं। गीता के अनुसार श्रीभगवान् के भिन्न-अंश होते हुए भी
जीव ' प्रकृति ' की कोटि में आते हैं। सातवें अध्याय के श्लोक पौंच में स्पष्ट उल्लेख
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