आस्वाद के आयाम | Aasvad Ke Aayam

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Aasvad Ke Aayam by रणवीर रांग्रा - Ranveer Rangra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पराठ्कीय पकड़ रखना प्रक्रिया के दौरान कृतिकार का तो मानस-मथन होता ही है, पर कृति को पढते समय पाठव' भी भीतर ही भीतर कम नही मथा जाता । कृति के माध्यम से जा पाठक तक पहुंचना चाहता है और उसके भीतर जो पहले से हो विद्यमान होता है, उन दोनो का सगम सहज नही हो जाता । कृति भे से जो पाठक की ओर आता है उसे पाते और पचाने मे, समझने और सभालने मे, कई बार तो पाठक पे समूचे व्यक्तित्व को जूझ जाता पडता है 1 समझने और सभालने की यह प्रक्रिया हुति को पढकर अलग कर देने पर समाप्त नही हो जाती, बल्कि पाठक के चेतन-अवचेतन म॑ वर्षों चलती रहती है। कीई रचना जितनी अधिक सशक्त हाती है, उतनी ही अधिक देर तक बह पाठक के भीतर धर किए रहती है, उसके मन और मंस्तिप्क मे बसी रहती है। किसी भी इति की परिणति पुस्तक के पनो मे नहीं हाती, बल्कि पाठक की अपनी करपना मे होती है। उसके मनोजगत में ही वह पुणता प्राप्त करती है तथा नाना रूप धारण करती हुई उसके जीवनानुभवां के साय विभिन मोड लेती रहती है ! पाठक की अपनी समझ के विकास के साथ वह भी विकसित होती हुई अपने अनेक आयाम खोलती जाती है। यह बात निष्कपहीत रचनाओं पर, निष्कपहीन कहानियो पर विशेष रूप से लागू होती है। उदाहरणाथ, जनेद्र की तत्सत' नामक कहानी को लें, जिसकी गिनती हिंदी की श्रेष्ठ कहानिया में होती है (आकार म यह कहानी छोटी है, पर है बहुत गहरी । इसके माध्यम से लेखक कसी गहन सत्य को उद्घादित करता प्रतीत ह'ता है। पर यह सत्य क्या है, यह साफ-साफ पकड मे नही आता, क्योकि उसका अन्त सूक्ष्म एवं व्यजनात्मक है और लेखक उसे कसी ठोस निष्कप पर नही पहुंचाता । कहानी बस इतनी ही है कि दा शिकारी एक गहन वन मे पहुँचे और एक बढे वठवक्ष वी छाँह तले बैठकर आपस में बातें करने लगे । एक ने कह्दा, “ओह, कैसा भयानक वन है!” और दूसरे ने कहा, “ओह, क्तिना घना जगल है! इसी तरह कुछ देर बात करके और विश्राम करके वे लोग आगे बढ गए । उनके चले जाने




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