पुनर्जागरण | Punarjagaran

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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को निहारने का तो ख्याल भी नहीं कर पाते इसोलिये कमी सृष्टि से जुड़ नहीं पाते । प्राचीन काल में ऐसी व्यवस्था थी कि झात्म-साक्षात्कार का मौका प्रत्येक विद्यार्थी को दिया जाता था । यह यात्रा प्रत्येक को श्रकेले करनी पड़ती थी। कोई मित्र, रिश्तेदार, सहयोगी, गुरु कोई भी साथ नही जाता था | सारे धर्में- अन्ध भी कहीं पीछे छूट जाते थे श्रौर जो भनुमभव होता था जीवन में, वह श्रेष्ठ था। ज्ञान भी किसी पर श्रारोपित नही किया जाता था । बियावान जगलों मे जंगली जानवरों से भपनी रक्षा स्वयं करनी पड़ती थी | भूख लगने पर कन्द, मूल, फल तोड़कर खाने का इन्तजाम भी स्वयं को ही करना पड़ता या। इस तरह लगातार प्रकृति की गोद में बड़ी सजगता से रहते-रहूते इन्सान निर्भय हो जाता भा । निर्भय बनने की शिक्षा लेते समय कभी किसी शिष्य की जान भी चली जाती तो कोई हज॑ नही । हमारा तो सर्देव झात्मा की अमरता में विश्वास रहा है । शरीर रोज महसूस करता है कि भूख रोज लगती है, फिर शिष्य जान जाता है कि शरीर भन्‍नमय-कोप है, इतनी-सी बात भी भ्नुभव द्वारा जानी जाने का विधान था | ऐसा कहना भी गुरु उचित नही समझते थे । विद्वामित्र के सन्दर्भ मे एक दंतकथा है | कथा का सार मह है कि विश्वामित्र जैसे तपसवी ने भी चाण्दाल के घर जाकर कुत्ते का मास भक्षण किया था । बात सच हो या भूठ लेकिन पेट की क्षुथा के भ्रत्यधिक बलवान द्वोने का पत्ता इस बात से जहूर चलता है । यदि ऐसा नही होता तो महावीर भोजन के प्रति यह नहीं कहते कि जितना दोनों हाथों मे श्राये उतनी खाद्य सामग्री जीवन के लिये उपयुक्त है। न ही सुजाता की खीर का एक ही प्याला बुद्ध पीते | सभी ने ऐसा कुछ न कुछ सोचकर ट्वी किया । किसी ने इन्हे ऐसा करने को कहा नही । झाज भी ऐसा ही होना चाहिये कि प्रत्येक मानव स्वतः ही जान ले कि हमारे कार्यों द्वारा मानवता का हित होना चाहिये, प्रहित नहीं । प्रत्येक मानव समान है। सम्पूर्ण जयत में एक ही सत्ता काम कर रही है, कही कोई भेद नही है | पुनर्जायरण 25




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