इक्कीसवीं सदी नारी सदी | Ikkisavin Sadi Nari Sadi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
454
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रकृति क्रम के अनुसार हर प्राणि वर्ग में हक की
तुलना में मादा की उत्पत्ति अधिक होती है, क्योंकि उस
प्रजनन का दबाव सहने के कारण नए की तुलना में
अधिक शक्ति खर्चनी पड़ती है। इस कारण उसकी मृत्यु भी
अधिक होती है। आयु भी कम रहती है.। इस संकट का
सामना करने के लिए यह प्रबन्ध अनिवार्य हो गया कि
मादा की उत्पत्ति नर की संख्या से अधिक हो और
समानता का संतुलन बना रहे?
पर यह उपक्रम अब मनुष्य जाति में क्रमशः उलट
होता चला जा रहा है। नर बढ़ रहे हैं और नारियाँ घट
रही हैं। इसका कुप्रभाव परिवार व्यवस्था, दाम्पत्य जीवन,
चंश परम्परा आदि सभी क्षेत्रों में प्रतिकूल पड़ेगा। यह
संकट नर ने जानबूझ कर खड़ा किया है।. नारी के साथ
उपेक्षा, अबज्ञा बरत कर उनको मनोदश। को इस स्थिति
में पहुँचाया है कि वे निराश रहें। जीवन का महत्व न
देखें। यह मनोदशा विकास पथ में अवरोध उत्पन्न करती
है। दुःखी प्राणियों को त्रास से उबारने के लिए प्रकृति
उनका अस्तित्व घटाना आरम्भ कर देती है। इसका प्रत्यक्ष
प्रभाव आँखों के सामने प्रस्तुत देखा जा सकता है। नारी
की संख्या क्रमशः घटती चली जा रही है। विश्षुब्ध रहने
की स्थिति बनी रहने पर वह और भी अधिक तेजी से
घटने लगे तो कोई आश्चर्य नहों।
कोढ़ में खाज की तरह नारी के अस्तित्व को
इन्हीं वर्षों में एक नया संकट पैदा हुआ है । गर्भ काल
में भ्रूण के लिंग का निर्धारण बना देने वाले उपकरणों का
चिकित्सा क्षेत्र में आविर्भाव हुआ है। इस एम्नियोसेण्टेसिस'
द्वारा गर्भकाल में ही यह पता लगाया जा सकता है कि
भ्रूण लकड़ी है या लड़का। मध्यकालीन मान्यता अभी भी
सर्वसाधारण के मन पर जमी हुई है कि लड़के का जन्म
सौभाग्य है और लड़की का होना दुर्भाग्य दुर्भाग्य से
छुटकारा हर कोई चाहता है। कोई बिस्ले ही अभिभावक
चाहते है कि उनके घर लड़की जन्मे, लाभ रहित बोझा
प्र पर लादे। दूसए0 बचाव भी अब कानूनी गर्भपात के
रूप में निकल आया है। अनिच्छित भ्रुण को गर्भपात द्वारा
हटाया जा सकता है। इसके लिए कितने ही चिकित्सा
संस्थान काम करते हैं। उपलब्ध जानकारियों के अनुसार
अभिभावकों में से बहुसंख्यके कन्या भ्रूण का गर्भपात करा
देते हैं। परीक्षण और गर्भपात में जो थोड़ा-सा धन लगता
है, उसकी तुलना में कन्यो जन्मने और उसके
भरण-पोषण, शिक्षा, शादी आदि के झंझट से छुटकारा
पाने जैसी बात सोची जाती है। इस प्रकार इन दिनों इस नये
आधार पर कन्या से भ्रूण काल में ही छुटकारा पा लेना
अधिक सरल हो गया है। '
बम्बई में एक सर्वेक्षण के अनुसार ७००० भ्रूण जो नष्ट
किये गये उनमें मात्र एक लड़का था। एक अन्य आकलन
के अनुस्तार सन १९७८ से' १५९८५ त्तक अपने देश में
७८००० कन्या भूण नष्ट किए गए। यह एक नया अभिश्ञाप
है परिवार मियोजन एक “लग बात है और चुन-चुन कर
इक्कीसवथीं सदी-नारी सदी १.१३
लडकियों का ही सफाया किये जाने की बात सर्वथा
दूसरी।
तात्कालिक लाभ सोचने और भविष्य की परिस्थितियों
को आँख से अलग कर देने की अदूरदर्शिता का ही यह
परिणाम है जो नर मादा के मध्यवर्ती संतुलन को बिगाडृता
चल रहा है। यदि दृष्टिकोण बदला न गया तो प्रत्यक्ष कन्या
वध के स्थान पर दूसरे बुरे तरीके पनपते रहेंगे। उपेक्षित
कन्याएँ समुचित आहार और चिकित्सा को उपयुक्त ,
सुविधा प्राप्त न कर सकेंगी। फलत: उन्हें कुपोषण का
शिकार होकर बीमारियों से ग्रसित होकर अकाल में ही
मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। जल्दी बला टालने की धुन मे
होने वाले बाल-विवाह भी मारी जीवन के लिए कम
घातक नहीं हैं । वे किशोरावस्था में ही खोखली हो जाती
हैं। बच्चे जनने के कारण बेमौत मरती है। जहाँ पिता अपनी
बला छुड़ाता है, वहाँ ससुराल वाले भी मनौती मनाने और
उस हेतु प्रोत्साहन देते देखे गये हैं! यह सभी प्रचलन
दृष्टिकोण ऐसे हैं जो नारी वर्ग पर कुठाराघात करते हैं।
कहना न होगा कि नारी का संख्यावत घटना उसका अशक्त
रुग्ण स्थिति में रहना नर के लिए भी कम त्रासदायक नहीं
है। अच्छा हो, समय रहते स्थिति पर विचार किया जाये
और अनौचित्य को अविलम्ब हटाया जाय।
नारी को उठाये बिना समाज
भी नहीं उठेणा
, भारत जिन दिनों पराधीन था, उन दिनों की दुर्दशा का
कारण लिखते हुए भावुक मैथिलीशरण गुप्त कह उठे थे-
भागें न क्यों, हमसे भला फिर, दूर सारी सिद्धियाँ।
पाती स्त्रियां आदर जहाँ, रहती वहीं सब सिद्धियाँ।।
इन पंक्तियों को कवि मन को कल्पना की उड़ान नहीं
कहा जा सकता। परिवार और राष्ट्र के समग्र विकास में
नारी का भो महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाज का आधा भाग
जब समाज के विकास में कोई योगदान नहीं दे पाता, शेष
आधा भाग भी अपनी आधी शक्ति को उस निष्क्रिय भाग
के भारवहन में लगा देता है तो समाज के लिए क्या बच
पाठा है। जब पूरी शक्ति स्वये और परिवार की उन्नति में
लगती है तो उसके और ही परिणाम होते हैं तथा उसका
त्तीन चौथाई भाग निष्क्रिय हो जाता है तो परिणाम में
अभाव आ जाना स्पष्ट ही है। |
नारियों को शक्ति को कुण्ठित करने के कारण हैं वे
प्रतिबन्ध, जो उस पर परिवार और समाज में लगे रहते हैं। *
उन प्रतिबन्धों के कारण नारी का कार्यक्षेत्र और योग्यता के
उपयोग को सम्भावनाएँ सीमित हो जाती हैं। प्राचीनकाल
में जब हमारा समाज सभी क्षेत्रों में उन्नति की चरम सीमा
पर था, तब सतियीं की प्रतिभा अभिव्यक्ति के क्षेत्र भी खुले
पड़े थे। वे हर क्षेत्र में निर्वाध प्रवेश कर अपनी योग्यता
हा ५.
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