आत्मदाह | Atmadah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
164
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आत्मदाह / 21-
कोई गहरा मन्तव्य नही या को व पता था कि उस दिना
शकुन क्या फैसला करके आई थी । जयन्त ने शकुन की दृढ़ता के
सामने अस्वीकार प्रकट न किया होता तो आज जयन्त और शबुन दोनों:
ही न जाने कहां जा चुके होते। पर शकुन का चेहरा सहसा गम्भीर हो:
गया और उसने उदास आंखों से ज्योति की ओर देखा । उसके होठों से एक
दीर्घे सास निकल पड़ी। उसने ज्योति से महज इतना ही कहा, “हां,
तुम्हारे भेया मेरी वजह से ही बीमार पड़े हैं--मैंने उस रोज़ जो कुछः
कहां था वह उसकी उम्मीद नदी रखते थे ।”
अभी ज्योति आगे कुछ पूछती कि तभी हाथों मे तरह-तरह के फूलों केः
भुच्छे लिए ज्योति का भतीजा बवलू पता नही कहां से आ निकला । उसने
बुआ की ओर फूल बढ़ाकर पृछा--/बुआ जो, फूलों की माला बनाकर
दोगी न १”
ज्योति से उसके हाथो से फूल लेकर कहा, “घर चलकर बना दूगी, पर.
माला किसको पहनाएगा ?ै”
यह वात तो बह बेचारा जानता नही था---शो दिग्घ्रमित होकर कुछ
सोचते हुए बोला--“ममी को 17
शतुन के चेहरे पर जो अवसाद घिर आया था--बरबस वह भी
मुस्करा उठी और बोली, “घत्त पणले ! माला भी पहनाएगा तो अपनी
माता जी को पहनाएगा ।/
ज्योति नें चुटकी ली, “गरीब ममी को ही सबसे आसान उपलब्धि
मानता है--छुक्े माला पहनाने के लिए तो बहुत जोर चाहिए ।। है
ण्रए
॥ ज्योति की बात सुनकर शकुन के चेहरे का भाव फिर बदल गया।
उसके भीतर एक अन्धड़-सा उठा, पर वह उसे जबरन दबाते हुए बोली--
यह मेरे या इसके चाहने से नही होता ज्योति । माला से वरमाला बनने
के रास्ते में हजारों मुश्किल और काले कोस पड़े हैं पगली 1
परेशान होकर ज्योति बोली, “पता नही शकुन तुझे ये गया हो गया
<। इन दिनों बहुत टची हो गई लगती है। मामूली-सोी बात पर भी न
जाने वयान्व्या संजीदा बातें बोलने लगती है। जो कुछ तेरे भीतर है उसे
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