आत्मदाह | Atmadah

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Atmadah by से. रा. यात्री - Se. Ra. Yatri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्मदाह / 21- कोई गहरा मन्तव्य नही या को व पता था कि उस दिना शकुन क्या फैसला करके आई थी । जयन्त ने शकुन की दृढ़ता के सामने अस्वीकार प्रकट न किया होता तो आज जयन्त और शबुन दोनों: ही न जाने कहां जा चुके होते। पर शकुन का चेहरा सहसा गम्भीर हो: गया और उसने उदास आंखों से ज्योति की ओर देखा । उसके होठों से एक दीर्घे सास निकल पड़ी। उसने ज्योति से महज इतना ही कहा, “हां, तुम्हारे भेया मेरी वजह से ही बीमार पड़े हैं--मैंने उस रोज़ जो कुछः कहां था वह उसकी उम्मीद नदी रखते थे ।” अभी ज्योति आगे कुछ पूछती कि तभी हाथों मे तरह-तरह के फूलों केः भुच्छे लिए ज्योति का भतीजा बवलू पता नही कहां से आ निकला । उसने बुआ की ओर फूल बढ़ाकर पृछा--/बुआ जो, फूलों की माला बनाकर दोगी न १” ज्योति से उसके हाथो से फूल लेकर कहा, “घर चलकर बना दूगी, पर. माला किसको पहनाएगा ?ै” यह वात तो बह बेचारा जानता नही था---शो दिग्घ्रमित होकर कुछ सोचते हुए बोला--“ममी को 17 शतुन के चेहरे पर जो अवसाद घिर आया था--बरबस वह भी मुस्करा उठी और बोली, “घत्त पणले ! माला भी पहनाएगा तो अपनी माता जी को पहनाएगा ।/ ज्योति नें चुटकी ली, “गरीब ममी को ही सबसे आसान उपलब्धि मानता है--छुक्े माला पहनाने के लिए तो बहुत जोर चाहिए ।। है ण्रए ॥ ज्योति की बात सुनकर शकुन के चेहरे का भाव फिर बदल गया। उसके भीतर एक अन्धड़-सा उठा, पर वह उसे जबरन दबाते हुए बोली-- यह मेरे या इसके चाहने से नही होता ज्योति । माला से वरमाला बनने के रास्ते में हजारों मुश्किल और काले कोस पड़े हैं पगली 1 परेशान होकर ज्योति बोली, “पता नही शकुन तुझे ये गया हो गया <। इन दिनों बहुत टची हो गई लगती है। मामूली-सोी बात पर भी न जाने वयान्व्या संजीदा बातें बोलने लगती है। जो कुछ तेरे भीतर है उसे




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