प्रमेयरत्नार्णव | Prameyaratnarnav

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Prameyaratnarnav by केदारनाथ मिश्र - Kedarnath Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपोद्घात 99 इस 'उपोद्दातः' के पृष्ठ '४ड' की चोबीसवीं पंक्ति से लेकर पृष्ठ 'डो । बाईसवीं पंक्ति तक का आयः आठ इ्शों का वद अञ्य जिसे बुद्धिस्थ र॒ प्रस्तावनालेखक ने मम्पादक महोदय की प्रशंसा करते हुए. अपने ग़स्ताविकम! में कह है कि 'भूमिकार्या ब्रह्मणों जीवस्य जगतश्र स्वरूप- उमशों नितरां रुपष्टटया विहितः', वस्तुतः ( माण्डारकर औरिएण्टल सचे इन्हटीव्यू से सन्‌ १९२६ में प्रकाशित बाढवोधिनीसहितस_ ऑीमदणुमाष्यम' के द्वितीय मार में मुद्रित ) प० श्रीधर शर्मा पाठक गया छिसित पंचपन प्रष्ठ के विद्वच्तापूर्ण उपोद्धात के प्रथम छब्बीस ट्टों के बीच-चीच के वाक््यों को अविकल रूप में गह्दीत कर तैयार कर डिया गया है और इस अश्य में ऐसे वाक्य खोज सकना कठिन है जो भी पाठक के उपोद्धात ( के प्रथम छब्बीस प्रष्ठों के अश ) से ज्यों के त्योँनलेलियेगये हों। इतना ही नहीं मूलस्यलनिर्देश भी फेवछ उन्हीं उद्धस्णों का किया गया है जिनका मूलत्यकछ श्री पाठक के उपौद्धात में निर्दिष्ट है। कहीं कहीं कुछ ऐसी नयी गलतियाँ भी की गयी हैं बिन्हें केबल प्रफरीडिंग की भूलें कह रुकना मुश्किल है; उदाहरणार्य श्री पाठक के उपोद्धात के, “२ साष्यकारास्तु स्वमाहात्म्य- दर्गेनारथमेव ब्रद्मणात्मन: सकाशात्‌ सर्वा सर्वेविधा सष्टिनेरमायि तेव न पूर्वोक्तैपम्यदीष इति समादधः” (प्रष्ट ४), “छ्लोध्ठ पु (झ० सू० १३१८ ) इति सूत्रप्रामाण्यात्‌““” (घरृष्ठ &), तथा “सर्वे खल्विद॑ ब्रह्म तज़लान! दति श्रुव्या'““” ( पृष्ठ १४ ) इत्यादि वाक्य इस उपोद्धात में क्रमशा, “(२ ) माध्यकारस्तु स्वमाहात्म्यप्रदर्शनायमेद अह्मणाशमन: सकाशात्‌ सर्वा सर्वविधा सृष्टिनिर्मायि वेन न पूर्वोक्त- चैपस्यदोप इति समादधु: 7! ( पृष्ठ 'छ! ), “लीच एवं (ब्र० सू& २३1१८ ) इति सूत्रभामाण्यात्‌ '” ( पृष्ठ ज' ) तथा “सर्व ख्विद महा; तजलानि! इति शुत्पा'“? ( पृष्ठ जग? ) इत्यादि रूपों में छपे हें। अन्तिम शृ४ठ 'द' के अन्तिम अनुच्छेद में सम्पादक ने पुत्तक के. अ्काशन के लिए द्रव्य देने वाले लखनऊ के मैष्णवों तथा विविध




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