संवर्त्त | Sanvart

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Sanvart by केदारनाथ मिश्र - Kedarnath Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र शान्ति के समय भी उनका सामाजिक अवोध निरन्तर जागरूक रहता था । बल, यश, पशु, सन्तान, ऐश्वये इत्यादि की कामना में सामूहिक भावना अविछिनन रूप से पाई जाती है। उन दिनों ज्ञान का उरुणोदय-काल था । फलतः प्रकृति की विभिन्‍न शक्तियों में देवता कौ स्थिति मानी जाती थी श्र उन शक्तियों की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए प्रकार-विशेष से भजन-पूजन का विंघान था । दिशाओं के अधिपतियों से विभिन्‍न दिशाओं से श्रागमनीय संकटों की धारणा करके श्राय्यंगण रक्षा की प्रार्थना किया करते थे । इसके अ्रतिरिक्त व्यक्तिगत राग-द्वंघ को लेकर मी भावों की स्फुरणा होने लगी । धीरे- धीरे श्रभिचारों श्र प्रयोगों का प्रचलन हुश्रा और निरन्तर विजयों से प्राप्ति शान्ति श्रौर निश्चिन्तता के कारण, लोगों की जिज्ञासा, देवी शक्तियों के समकने की ओर अग्रसर हुई । इसके फलस्वरूप बहुदेव-वाद, सबदेव-बाद, एकदेव-वाद और ब्रहझझवाद के विचार साहित्य श्र घर्मशास्त्र में प्रतिफलित हुए । इस प्रकार समाज में ग्ज्ञा-भेद॒ उपस्थित हुआ । समाज के सम्मानपात्र शऋषियों ने [माजिक काय्यों की सुगमता के लिए वर्णाश्रम-विभाग की स्थापना की | प्रारम्म में व्णों और श्राश्मों में स्वा्थ-विरोध श्रौर उच्च-नीच की भावना न थी. परन्तु धीरे-घीरे उन भावनाओं का पूणतया त्धिपत्य हो गया पा वेदों के बाद के सादहित्यों में प्राय: अन्त:संप्रष मिलता है । इसका कारण यह है कि आ्रायोँ के इतरजातीय. शत्रु नतशीर्ष॑ होकर उनकी सेवा-परिचर्यया करने लग गये थे। . आय्यों का उद्धत अहंकार




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