उत्तरपुराण | Uttar Puran
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
73 MB
कुल पष्ठ :
1162
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१९
ध्ह्ल्ल्क्छ्ल्ल्ल्त्ल् तक पा 77:57:
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कुबंशस्य सुंषेणा तत्सुरागमे । पण्मासान् वसुधाराधिमाहात्यपदवीं गता ॥ १५ ॥ शुक्रफाल्गुनजाष्टम्या स्वप्नान् पोडश पंचमे । प्र-
भातसमये5पश्यक्क्षत्रे' सुकृतोदयात् ॥ १६॥ ततोनु 'बदनस्वातःस्वप्ने ग्राविद्वदश्निमे । गिरीद्राशिखराकारो वारणश्वारुलक्षणः ॥१७॥
सा तेषा फलमाकर्ष्य स्वपतेमुंदमागता । नवमे मासि नक्षत्रे पंचमे सोम्ययोगगे ॥ १८ ॥ पौर्णमास्वामवापार्च्यमहमिंद्र त्रिविदयुतं ।
सजन्मेत्सवव ल्याण प्राते संभव इत्यभूत् ॥ १९ | संभवे तव छोकाना श,भवत्यद्य इंभव । विनाएि परिषाकेन तीर्थक्ृन्नामकर्मण'
॥ २० ॥ तवागमूजे श्रीणंति लक्षूणव्यंजनोद्मे । प्रलबबाहुविटपे सुरहग्अमराश्यिर ॥ २१ ॥ परतेजासि ते तेजो भाति देव तिरोद-
घत् | मतानि कपिलादीना स्वाझ्ञादस्मव निमछ ॥ २२ ॥ समस्ताहादकेनासीदामोदेनेव चंदन/ । बोधेन सहजातेन त्रिविधेन जग-
द्वित। ॥ २३ ॥ त्वा रोक; स्नेहसबृद्धो निर्देतुढ्वितकारण । प्रदीपवन्नमत्यप निधानमिव भास्वरः ।॥ २४ ॥ इति स्तुत्वादिकस्पेशो
वह हृष्ष्वाकुबंश टथा काश्यप गोम्रमें उत्पन्न हुआ था उसकी रानीका नाम सुपेणा था | जब उस अद्द्मिंद्रकी आयु छह
महईनकी रह गई थी तमीसे उस राजाफे घरमें रत्नोंकी वषों होने लगी थी और उसका माद्दात्म्य सन जगह फ्रेल
गया था ॥ १४-१५ ॥ फाशुन सुदी अश्मीके दिन सृगसिर नक्षश्रमे सवेरेक समय पुण्यकर्मके उदयसे रानी सुपेणाने
सोलह स्वप्न देखे ॥ १६ ॥ पहिले कट्दे हुये सेलद्द स्वप्न देखनेके वाद उसने अपने मुहमें मुंदर लक्षणोंसे सुझ्ोमित
और मेरु पर्वतठके शिखरके समान एक द्वाथी अपने मुहमें प्रवेश करते देखा ॥ १७ ॥ अपने पतिसे उन स्वम्ोंका
फुल सुनकर वह बहुत ही असझ्न हुई उसी दिन वह अहमिंद्र अपनी आयु पूर्णकर उसके गरभेमें आया। नवमे महीनेमें
कार्तिक शुक्ला पोर्णमासीके दिन चंद्रमाके योगमें सगसिर - नक्षत्र रहनपर भगवानका जम हुआ ओर जन्म,
कल्याणके अंतम्में इंद्राने स्तुतिकी कि दे समवनाथ ! तीर्थकर नाम कर्मके उदयके बिना ही केवल आपके जन्म लेनेसे ही
जीवोंको सुख मिला है॥ २० ॥ है देव ! लक्षण और व्यंजनोंस ( छोटे २ चिन्होंने ) प्रयट हुआ और लबीलंगी
भ्जारूपी श्लाख्ाओंसे सुशझोमित ऐसे आपके श्वरीररूपी कल्पशृक्षपर देवताओंकी दृश्टिरूपी अमर बहुत देर्तक तृप्त
रहते हैं । २१ ॥ हे देव ! जिसप्रकार निर्मल स्याह्ाद वणीका तेज' कपिल आदिके मतोंका तिरस्कारकर सुशोभित
द्वेता है उसीमकार आपका तेज मी सबके तेजको तिरस्कार करता हुआ सुशोमित दे रद्दा हे ॥ २२॥ जिसम्रकार
चंदन सबको श्रसभ्र करनेवाली सुगघसे सुश्षोमित द्वाता है उसीग्रकार साथ साथ उत्पन्न हुये मतिज्ञान भुतज्ञान और,
अवधिज्ञानसे आप भी जगतका द्वित कर रहे हैं॥ २३ ।। दे नाथ ! आपके प्रेमसे बढ़ा हुआ यह लोक दीपकके समान
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