वृहददृव्य संग्रह तथा लघु दृव्य संग्रह | Vrihaddrivya Sangrah Tatha Laghu Dravya Sangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
286
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गाथा १ ] प्रथमाधिकार: [७
“बक्खाणउ” व्याख्यातु। स का ! “आयरिश्रो/” आचारय। | के ? “सत्य!
शास्त्र | “पच्छा”” पश्चात्। कि ऊंत्वा पूष १ “वागरिय” व्याकृत्य व्याख्याय |
कान् १ “छप्पि” पडप्यधिकारान् | कथभूतान् ! “महुलणिमित्तहेउ' परिमाणं णाम
तह य फत्तार” मड्भगल निमिचं हेतु' परिमाणं नाम क॒ठत संज्ञामिति | इति गाथा-
कथितक्रमेण मड़लाधधिकारपट्कमपि ज्ञातव्यम् | गाथापूर्वार्धेन तु सम्पन्धासि-
धेयप्रयोजनानि सुचितानि | कथमिति चेतर-- विशुद्धज्ञानदश नस्वभावपरसा त्मस्व-
रूपादिविवरणरूपो बृत्तिग्रन्थो व्याख्यानम् । व्याख्येयं तु तमतिपादकश्नन्नम् | इति
व्याख्यानव्याख्येयसम्बन्धी विशेय! | यदेव व्यास्येयप्नन्नमुक्त'ः तदेबाभिधानं
चाचकं प्रतिषादर्क मण्यते, अनन्तज्ञानाथनन्तगुणाघधारपरमात्मादिस्वभावो5मिधेयों
चाच्य; प्रतिपादः | इत्यभिधानामिधेयरवरूप॑ बोधव्यम् | प्रयोजन तु व्यवहारेण
पड़द्॒व्यादिपरिज्ञानमस्, निश्चयेन निजनिरब्जनशुद्धात्मसं वित्तिसमुत्पन्ननिर्षिकार-
परमांनन्देकलक्षणसुखामसृतरसास्वादरूपं स्वसंवेदनज्ञानम् | परमनिश्चयेन पुनस्तत्
फलरूपा केषलज्ञानाधनन्तगुणावरिनाभूता निजात्मोपादानसिद्धानन्तसुखाबाप्तिरिति |
एवं नमस्कारगाथा व्याख्याता |
अथ नमस्कारगाथायां प्रथम यदुक्तः जीवद्रव्यं तत्मम्बन्धे नवाधिकारान्
व्याध्यान करे ॥ १ ॥” इस गाथा में कहे हुए मज्जल् आएि ६ अधिकार भी जानने
चाहिये । गाथा के पूर्वार्ध से सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन सूचित किया है । कंस
सूचित किया हे ? इसका उत्तर यह है कि निर्मल ज्ञान दशनरूप स्वभाव-धारक जो परमात्मा
है, उसके स्वरूप को विस्तार से कहने वाली जो चृन्ति है वह तो व्याख्यान है और उसके
प्रतिपादन करने वाले जो गाथा सूत्ररूप है वह व्यास्येय ( व्यात्या करने योग्य ) हैं । इस
प्रकार व्याख्यानव्याख्येयरूप “सम्बन्ध” जानना चाहिये । ओर जो व्याख्यान करने योग्य
सूत्र है बदी अभिधान अथौत् वाचक कहलाता है। तथा अनन्त ्ञानादि अनन्त गुणों का
आधार जो परमात्मा आदि का स्वभाव है वह अभिधेय है अर्थात् कथन करने योग्य
विपय हे । इस प्रकार “अभिधान-अधियेय का” स्वरूप जानना चाहिये | व्यवहारनय की
अपेक्षा स पटद्वव्य आदि का जानना? इस ग्रन्थ का प्रयोजन है। और निमश्चयनय से अपने
निलेप शुद्ध आत्मा के ज्ञान से श्रगट हुआ जो विकाररहित परम आनन्दहूपी अमृत रस का
आस्वादन करने रूप जो स्वसंवेदन ज्ञान है, वह इस भ्न्थ का प्रयोजन है | प्र॒रस निम्धयनय
से उस आत्मज्ञान के फलरूप-फेवलज्ञान आदि अनन्त गुर्णा के बिना न होंन वाली और
निज आत्मारूप उपादान कारण से सिद्ध होने वाली ऐसी जो अनन्त सुख की प्राप्ति है
वह इस ग्रन्थ का प्रयोजन है । इस तरह पहली नमस्कार-गाथा का व्याख्यान किया है|
अब 'नगस्कारगाथा में जो प्रथा ही जीवद्गव्य कह गया है, उस जीव॒द्गव्य के
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