प्रसाद ग्रंथावली भाग - 1 | Prasad Granthavali Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
728
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नादात्मऊ वागात्मक तत विश्व-छन्द मे परिणत ज्ञान और उसकी
वावात्मक्ता किसी पुएध-विशेष अथवा देश विशेष की लिजी सम्पदा
नहीं उसका स्वरुप पूण, अभग और अद्वय है। उसके चिदाकाशमय
स्वाग पर यह विश्व, आलेख्प और आलिखित होता है। वह झुव भी
है धारा भी और प्रसाद भारती की आँखो का अपने प्रेयमय कलेवर म॑
श्रेयात्मक सत्ता चेतन्य वियद्व्यापी 'ध्ुवतारा' भी ।
स्न्तु भाइ्चय है, 'एकमेवाद्वितीयसश' के आलोक म॑ 'सुयेव
कुटुम्मकम हो नहो 'स्वदेशों भुवननयम्' भी बहने वालो की सन्तति
अहकृति पाश से निजस्व वी महाव्याप्ति की लघु-परिसीमनो के खूँटे
बाच, भाज विश्व कत्याण की बातें वरती यज्ञ रचती हैँ, फलत , देश-
विग्रह-जात्ति विग्नह की कृत्रिम सीमाओं ने समष्ि-चेतना को गाडी के
आगे काठ रख दिया है। और, आज नरस्थ नारायण सबवथा उपेक्षित्त
है और, प्रस्तरो मृत पापाण-कल्प वैकुण्ठवासी, आराव्य बन बेंठ है।
यह देख प्रसाद भारतो को कहना पड गया, 'एसा ब्रह्म लेइ का करिह,
जो नहिं करत, सुनत नहिं जो कछु, जो जन पीर न हरिहे (मकरन्द-
बिन्दु, चिताधार)। उसकी एकमेव दृष्टि 'जनपीर किवा विश्व की
दुसावेदना पर आदित रही है, और उसी के उपचार-सहिता रूप, दुख-
दग्ध जगत आंर भानन्द पूण स्वग” को एफ्रीइृत्त करने म तत्पर समूचा
प्रसाद-वाग्मग्र प्रस्तुत है ।
अस्तु, बेश्वदेव की वेश्वानरी अचियों के सवाद ग्रहण करने की
क्षमता का जब सम्पूण नियात हो गया तब किसी भी लुप्त विस्मृत
भाव परम्परा अथवा अभिव्यक्ति-शेली को आयातित ठहराना वेसी
कुण्ठा में कितना सरल होगा, यह बताने की आवश्यकता नही । ऐसी
दशा मे, इस नई वाव्य धारा के मूल स्रोत वे प्रति इगित मे कहा गया --
कविता के क्षेत्र मे पौराणिक युग की फ्रिसो घटना अथवा देश विदेश
वो सुन्दरी के बाह्य वणन से भिन्न जब बेदना वे आधार पर स्वानु-
भूत्तिमपी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी मे उसे छायावाद के नाम से
अभिहित किया गया'--'बाहा उपाि से हट कर बान्तर हेतु की भोर
वधिऊम प्रेरित हुआ (यथाथवाद और छायावाद, काव्य और कला त्तथा
अन्य निबन्ध )। वेदना का पूथचरचित प्रसग इस उद्धरण के आलाक में
भी ध्यातव्य है|
पुनरपि, यहा कहना होगा कि इस उत्लेख का तात्पप छायावाद
नाम से भभिहित इस नई धारा के वस्तु-तत्व, स्रोत तत्व और प्रेरक-
भावक्थन ह र७॥
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