रत्नकरंड श्रावकाचार | Ratnakarand Shrawakachar

Book Image : रत्नकरंड श्रावकाचार  - Ratnakarand Shrawakachar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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। ' झ्राचारमागेका विधिवत्‌ कथन दिया हुआ है इस विषयके लिए विवेचक अनेक भ्रन्थ उपलब्ध हूँ. जिनमें गृहस्थ ओर साधुभ्रोके आचार-विचारका विवेचन पाया जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थ भी आचार मागसे सम्बन्ध . रखता है इस प्रन्थसें श्रावकके आचघारोंका सांगोपांग कथन दिया हुआ है यह प्रन्थ उपलब्ध श्रावकाचारोंमें सबसे प्राचीन है, रचना संक्षिप्त सरल तथा सूचात्मक होते हुए भी गम्भीर भर्थेकी प्रतिपादक है इसका एक ' एक वाक्य जचा तुला हे प्रन्थमें लक्षणोंके अरथकी अभिव्यंजकुता,आप्त-आगम और गुरुके लक्षणों की परि- े | साषाए' तथा रत्लत्रय द्वादश ब्र्तों और प्रतिमाओंके लक्षण और सम्यरदशेनकी महत्ताका विस्तृत बणेन किया ; गया है। भ्रन्धमें दाक्य-विन्यास सुन्दर है भौर वे भनेक उत्तम सक्ठियों तया अनुप्रास आदिको दिव्य छटा* ' से ओत-ओ्रोद हैँ। विदेचन शेज्ञी सरल और अति मधुर है। प्रंथमें दाशनिकताका पद पद पर अनुभव होते हुए भी उसमें दाशनिक ग्रन्थों जेसी जदिलता एव' दुरूहता नहीं है और न विचारोंमें कहीं संकीर्णताको द्वी ! दी स्थान प्राप्त हे,डिन्तु सर्वत्र उन्‍तत एवं उदार विचारों का समर्थन पाया जाता है जो कि जैनघरसेकी भाव्मा / फा प्राण है और जो सर्वोद्ययकी अनुपस्त घाराका प्रतीक है। प्रन्थका प्रविपाय विषय चित्ताकर्पषक भर ' आचार-शास्तरके दोहनसे निःस्यूत पीयूषकी चह बिमल धारा है जिसका पानकर जीव मिध्या विषका वसन कर देता है. और निर्मेल सम्यक्त्री चलकर अनन्त अविनाशी सुखऊा पात्र बन जाता है।, इस प्रन्थरत्नके फर्ता स्वाप्ती समन्तसद्र फविकुलकमलद्वाकर, गमक, बाग्मी, वादी, आचार्य, तके-शिरोमणि, और मदान्‌ योगी थे। आपमें वाद करनेकी अद्भू त शक्ति थी। आपकी आत्मा भस्माच्छा - दित अगार-सदृश अन्तर्जाज्वल्थम्ाान सम्यग्दशेनरूप अनुपस प्योतिसे उद्दीपित थी। आपका व्यक्तित्व महानू « और आपकी प्रज्ञा असाघारण थी | झाप क्षत्रिय राजपुत्र थे और क्षात्र तेन आपकी रग-रग्ें समाया हुआ ' था। आपका बाल्यक्राक्षीन नाम शांतिवर्सा था। आपने सांसारिक वैभबको निःसार सममकर छोढ़ दिया था और शुरुके निकट जेन-दीक्षा ले ली थी और अद वे नग्न दिगम्वर साधु बनकर तेजस्वी सिंहके समान निरभेय सर्वत्र भूमए्डलमें जिचरण करते थे ओर स्वयं आत्म साधन करते हुए जगवको आत्मकल्याणका मांगे घठलाते थे । भाषका सुनिजीबन बढ़ा हो शान्द और निःस्पृद था झोर वे उदयागत कर्मे-विपाककझो -- उपसमे परीपददोंकी मद्दान्‌ एवं असहाय पीडाको-साम्यभावसे सदंते ये और उनसे कभी भी विचलित नहीं होते थे । आपका अधिकांश समय झात्म-चिंतजन, प्रन्थ-प्रणयन और मुनिपदके योग्य अ्रसावद्य क्रियाओोंके अनुपठनर्मं ज्यदीद होता था! आप परीक्षाप्रधानी थे--अस्तुतत्वको--थुक्ति और आगमसे अब धधित : स्तरोफार फरते थे । आपका युक्तिषाद अकाट्य और गस्भीर रहस्यका उद्धावक है ओर वह उस्‍्तुमें निहित इन्तर्वाह्म स्वरूपका उदबोधक है। झापमें वस्तुदत््तके ब परीक्षण अथवा समीक्षणकी असाधारण कमता थी, यददी फाएश है कि प्रतिवादिजन आपसे पराजित हो ज्ञाते थे, और थे आयः अपने अभिमह अथवा हठको पोग्कर समटप्टि घन जाते थे । आप केवल दाशैनिक द्दीनये, किन्तु आपमें भक्तिक्ा वह अपूब स्रो (ः पद्ममान ह्ञिसफे चार » हर विद्यमान था किसके द्वाए आत्मा अपनेको ऊँचा उठाकर विश्वरन्य बन जाता है। ठोन घ जूति शिपयके की प्रतिपादह है पज़िनमें स्तुति करते हुए है प्रन्थ तो आपके एमीर पर सांह्िम घ्चों को गई है इसीसे आपको झा यस्तुतिकार! जम सैद्धानविक विषयोंकी किक जेसे ५४1१ गुर पविशसिक पिद्दान्‌ प० जुगलकिशोरजी मुख्तारकों देहंली शब्दकि द्वारा उल्लेखित किया गया फे भंडारसे जो एक परिष य-पश्म मरित्षा है। घ




User Reviews

  • rakesh jain

    at 2020-11-22 15:45:53
    Rated : 7 out of 10 stars.
    category of the book is Religion/Jainism
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