बृहदा रण्यक उपनिषद भाग 1 | Brhada rnayak opanishad Bhag 1

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Brhada rnayak opanishad Bhag 1  by आनन्द गिरि - Anand Giriश्री शंकराचार्य - Shri Shankaracharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय-- क्षी कलास आश्रम ऋषिकेश की आदर्श परम्परा श्री कंलास प्राश्रम [(त्रह्मयिद्यापोठ) ऋषिकेश की संस्थापना प्रातःस्मरणीय प्राध्वसंस्पापक ब्रह्मतीन स्वामी घतराज मिरि जी महाराज द्वारा उस समय की गई, जिस समय भारतवर्ष मे प्राचीन पद्धति से दाग निक ग्रन्थों का पठन-पाठन मृत प्राय सा हो चला था । विद्वान्‌ एवं घामिक तेताग्रों का म्रुकाव भी संसार की सत्यता प्रतिपादन करने में होता जा रहा था| सामाजिक पुतरुत्यान के नाम पर भारतवर्ष की प्रादर्ण संस्कृति एवं सभ्यता का निर्वेचन पक्षपातपूर्ण रृच्टि में किया जाते लगा था । ऐसे अभ्रवसर पर भ्रह्म विद्या के पठन-पाठस, इसकी सार्वकालिक उपमोगिता एवं महत्त्व पर बल दिया जाना श्रावश्यक था । परम श्रद्धेय स्वामी धनराज गिरि जी महाराज ने उत्तराखण्ड में ग्रद्धा के पव्िन्न एवं सुरम्य वातावरण में रहने वाले आत्मानन्द के रसिक साधवों एवं महापुरुषों को इस ब्रह्मविद्या बे भ्रध्ययन के लिए प्रेरित किया। श्रारम्भ में वृक्ष की छाया मे भ्रध्यमन-प्रध्यापन करना, भिक्षान्त भोजम करते हुए तत्त्वजिज्ञासुत्रों की पिपासा को शान्त करना मात्र ही इनका जीवन था। कछ्ातान्तर में प्रभितव-चन्द्रेशवर भगवान्‌ महादेव की प्रेरणा से महाराजश्री ने सन्‌ १८४० में श्री कैलास झ्राश्नम ग्रह्मविद्यापीठ की स्थापना कर भारतव्प में दाशंनिक ग्रन्थों फे भ्रध्यपन की परम्परा को मदा-सदा के लिए सुरक्षित रखने का दीड़ा उठोया । श्री कंलास प्राश्नम ब्रह्म विद्यापीठ पिछले एक दतक छे वेदान्त भ्रध्ययन-प्ध्यापन की परम्परा को श्रक्षुण्ण बनाए हुए है । गज्भा के तट पर एक छोटी सी पहाड़ी पर छिथित केलास झाश्रम वेदान्त जिज्ञासुम्रों के लिए भ्रत्यन्त मनो रम स्थल है । साधको एव ग्रह्मविद्यानुरागियों के लिए बहुत ही प्रमुकल बातावरण है | यहाँ का एकान्त सेवन एवं प्तिष्ठावान्‌ महापुरुषों का प्राश्रय किसको भात्मशान्ति प्रदान नही १रता । यहाँ का वाघुमण्डल देराग्यरागरसिको धगे झ्ात्मरत्ति के लिए स्वभावत्त: प्रेरणा देता है। यहाँ की पवित्र भूमि मे क्‍ग्राचायंजनो के श्रीचरणो के साप्निध्य मे ऐसा लगता है मानो भद्वेत- निष्ठा सब शोर मे सिमट कर मूरतिमती होकर यही भ्राधास करने लगी हो । स्वामी विवेकानन्द जी एव स्वामी रामतीय॑ जी प्रभूति विशिष्ट महापुष्यो की सापनध्यली श्री क्रल्लास झाश्रम में सर्वप्रथम सन्‌ १६६७ में मुझे प्राने का अवसर देवदयोग से प्राप्त हुआ। विद्यावाचस्पति प्रनन्त श्री विभुषित महामण्डलेश्वर स्वामी विध्णुदेबानल्द जी महाराज के दर्शन किए। उनकी त्ततत्वनिष्ठा प्रलोकिकथी। इघर सन्‌ १६७३ से तो संस्था का भज्धभूत होकर जीवन्मुक्त महापुरुषो की भट्दतनिष्ठा का सिन्‍्तस करने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा है। करी कैलास भाशम के पीठाचार्य प्रपनी विद्त्ता एवं सत्त्त्िष्ठा के लिए बिदत्ममाज में सदा पर्वप्रिय रहे हैं । यहाँ के पोठाचाय महामण्डलेश्वर स्वामी यो विन्दानन्द गिरि जी महाराज एवं विद्या- वाचस्पति प्रमन्त श्री विभूषित महामण्डलेश्वर स्वामी विष्णुदेवानन्द गिरि जी महाराज ने उपनिषदों का रहस्य प्रतिपादन करने के लिए सस्कृठ भाषा में टिप्पण एवं धोडपत्नों को लिसा। सर्वत्र चर्चा पत्ती झा रहो थी कि कंतास में उपतिपदों पर दुर्तम हस्तलेख हैं । पूर्व पीठाचार्यों की प्रकाशन कराने को प्रवृत्ति नही होती थी । इस वरह वे हस्तलेख वर्षों तक पुस्तकालय की श्योमा बने रहे 1 इनके




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