आचार्य भास्कर | Aacharya Bhaskar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
209
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२ [९ ]
यान्तो भचक लघुपूर्वगत्या खेटास्तु तस्थापरशीक्रगत्या।
कुलालचऋषमिवामगत्या यान््तो न कीटाइब भात्ति यान्तः ||
गो. अर. सम. ग. वा. ४ ।
अर्थात् ग्रह नक्षत्रमण्डल में श्रपनी पश्चिम से पूर्व की ओर लघुतम गति के द्वारा जाते हुए पूर्व से
पश्चिम की अपनी बृहत्तम गति के द्वारा चलते हुए ठीक उसी प्रकार से गतिशील नहीं प्रतीत होते जैसे कि
कुलाल चक्र के भ्रमण दिशा से विपरीत दिशा में चलते हुए अल्पगति वाले कीटों की गति नहीं प्रतोत होती ।
तात्पर्य यह हैं कि हम आकाशीय प्रकाश पिण्डों को पूर्व से पश्चिम की ओर जाते हुए प्रतिदिन
देखते हैं । किन्तु उनमें दो अ्कार के पिण्ड हैं । एक तो वे जो भ्राकाश में सदा एक हो स्थिति में दिखाई
पड़ते हैं, जिन्हें हम नक्षत्र कहते हैं भौर दूसरे वे हैं जो प्रतिदिन अपना स्थान बदलते हुए पश्चिम से पूर्व
की शोर बढ़ते जाते हैं, उन्हें हम ग्रह कहते हैं। ग्रहों की इस हिविध गति के सामझस्प के लिए हमारे
आचार्यो ने प्रतिदिन पूर्व से पश्विम की श्रोर ग्रह नक्षत्रों को जाते हुए देखने का कारण, आकाश में प्रवह
वायु का अस्तित्व बतलाया है, जो दिन रात में एकवार सभी ग्रह नक्षत्रों को पूर्व से पश्चिम की दिशा में
पृथ्वी के चारो ओर घुमा देता है । ग्रह श्रपनी गति से पश्चिम से पूर्व की ओर मन्दगति से चलते रहते हैं
और उनकी यह गति हमको ठीक वैसे ही प्रतीत होती है जैसे कि कुम्हार के चाक पर बैठा हुआ खटमल
चाक की गति से विपरीत दिशा में चलते हुए भी हमें चाक के घृमने की दिशा में ही जाता हुआ प्रतीत
होता है ।
भागवतपुराण में चन्द्रमा और सूर्य के मध्यम चक्रश्नमण के समय का प्रायः शुद्ध उल्लेख है।
बुध और शुक्र को अ्रकंवद्भ्रमति' लिखा गया है। 'गतिभिरकवच्चरति' मंगल भौर शनि के चक्र भ्रमण
कालों का भी निर्देश है।
ग्रत ऊध्वेमड्भारकीईषपि योजनलक्षट्ठवितय उपलकब्यमानस्त्रिभिस्न्रिभिः पक्षेरेकक्शो-
राशीन्द्रादशानुभुड वते यदि न वक्त सपाभिवतंते ग्रायेशशभग्रहो यशंसः ।| १४ ॥ इत्यादि ।
( भागवत स्कध. ५, अध्याय २२ )
भागवत महापुराण में ग्रहगतियों के चक्रश्नमणकाल की स्थिति का अंकन ही ग्रहों की गतिविधि
के अन्वेषण का मूल कारण है। इसी पर वित्रार करते हुए भारतीय तथा विदेशी आचार्यों ने ग्रहगतति के
विजेता के विषय में विवेचन प्रस्तुत किया हैं। सर्वप्रथम पंचसिद्धा'न्तका में पाँच सिद्धान्तों में ग्रहगति की
विषमता के विवेचन के लिए सामग्री उपलब्ध हैं। इस ग्रन्थ में सूर्य सिद्धान्त, पौलिश सिद्धान्त और रोमक
सिद्धान्त इन तीनों में प्रत्येक ग्रह के चक्रश्नमणपूर्तिकाह का निर्देश है। दिनमान तथा राशियों के
उदयमान लाने की विधि भी उसमें दी गई है। द्वादशाड्भल शंकु की छाया से ग्रह की क्रान्ति लाने का
प्रकार भी उसमें है। भास्कराचार्य ने इसी कारण से पच सिद्धान्तिकाकार आचार्य वाराहमिहिर की. बहुत
प्रशंसा की है | क्योंकि उसमें न केवल सूर्य चन्द्रमा बी विषम गतियों के आतयन के लिए क्षेत्रसंस्था के
द्वारा सम्यक् विवेचन किया गया है, प्रत्युत भौमादि पंचतारा ग्रहों के बक्र मर्गादि गतियों की विषमताशओं
के विश्लेषण के लिए भी प्रकार बतलाया गया है। प्राचीन सूर्यसिद्धान्त का जो रूप हमें पंचसिद्धान्तिका
में उपलब्ध है उसका संशोधित रूप हम श्रार्यगटीय में पाते हैं ।
आये भटहु--
शआ्रार्य भट्ट ने पंचसिद्धान्तिका में विरे हुए भिन्न-भिन्न रूपों में ग्रहों के चक्रपृति दिनों को एक
बड़ी संख्या में इस प्रकार॒प्ढ़ने का १ यास किया जिससे कि एक ही अहरगंण से सभी ग्रहों की मध्यम
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