शतध्नी | Shatdhani

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Shatdhani by वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य - Birendra Kumar Bhattacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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9० ० बहूछा माप रैंप सर्रामा हुआ सीसर गया । सार गमर छान डासे । कहीं विमसा नहीं दिलाई दी | नौकर लड़के स पूछा । उसमे कहां विमन्ना को धर से गय देर ड्ो गई । मेरा क्रोध चोटी तक पहुँच गया। इस धर में शोर्द स्यतस्था सही है शोई विसी बी आशा झादेश नहीं मानता है। मैंने जोरण का बक्ठ देखा । खुला पडा बा। गहून-वपड़ आाहूर रखे थे । यहुत ही सापरबाह है विमसा मौर प्रसिसा भी । अजगर भीड़ों ॥1 ऐस सामत छोड दिया जाये ता भारी भी हो सकती है। जारण ने ब्रामान पर पूरा दो हजार रूघ हुमा था । सगया है हमार परिवार में हर स्पक्ति एड ग्रह बे समास है जो मसण सपनी बक्षा में धूमता रहता हैं | भयोग से मैं और प्रमिसा एक ही का में पड़ पये खीर हमारा भ्यायी सम्धभ हो गया । मुदापे में परिणयर का सयेदबर मं अपने लिए जिदता प' सुसंगठित आय बमाना शाहता वा बह उतना ही विष्छिन्न होता जा रहा पा। न शान कज इस इमारत जी दीबारे मोर श्मे दह जायगे और मैं दव जाऊँगा ) प्रक्स गा चीर्शे ठिकाने से रखगर मैंने दबरल सगा दिया । गादी बान में रुवल आपा मेंदा रद गया था। आधेई पर बहुत प्राय आ रहा था 1 समय का इसना जान होत हुए भी वह अमी हा क्या सदी आया बुछ दर मौर प्रतीसा की ] उैठर से सया। यहाँ प्रसिया एक पर्षी पढ़ एड थी । झेर माग बर दी | अरड़िण । “यून में पहने गा धोरज महीं है । जिसने, दिसे, गया मिया है ? नुम्दीं शहर दो १ *




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