श्री सुदर्शन शतकम | Sri Sudarshana Shathakam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी भाषाटी कासहितम्‌ ( १९ ) पदश्की, अमरचमूगरजितेः समम्‌ , उज्जिहाना। सा चशञ्चछा चक्रधारा केतकीमिः सद्शी व कीर्तिप्रथयतु ॥ ३० ॥ त्पासघनकी छटावाले भगवान श्रीकृष्णचन्द्रकों अलूकृत करने वाली एव परशुरामकी नीति तथा शुक्राचार्यके नेत्रकोी नष्ट करने वात्वी; तथादेत्य दानवोंकी ख्तियोंके नेत्रोंसे म्कृष्ठ अश्रधाराको बहाती हुईं स्वयं तप्त सुवणके सदश शोभायमान, देव सेनाके घोषके साथ ही साथ जो प्रकट हुआ करती है| वह चञअ्लछा चक्रधारा केतकीक स्वच्छ पृष्पक समान आपकी की।तंकोी विकसित करे ॥ ३० ॥ बप्राणां भेदिनी यः परिणत्िमखिलश्लाघनीयां दधानः क्षुण्णां नक्षत्रमालां दिशिद्शि विकिरन्विद्युता तुल्यकक्ष्य: । निर्याणनोत्कटेन प्रकट्यति नव. दानवारिप्रकष, चक्राधीशस्य भद्रो वशयतु भवतां स प्रधिश्चित्तवृत्तिम ॥ ३१ ॥ अन्वय; -यः वप्राणां भदिनी, अखिलश्डाघनीयां पारिणतिद्धानः । क्षुण्णां नक्षत्रमाढां दिशिदिशि विकिरन्‌ , विद्युता तुस्यकक्ष्य: उत्कटेन निर्याणेन नवंदानवारि प्रकषय मकटयति चक्राधीशर्य सः भद्गर प्रथिः भवतां चित्तवृत्ति वशयतु ॥ ३१ ॥ जो बड़े बड़े आकार एव तत्सदश शरीरवाले शवुसमूहका विघ- टन करती ओर अपग्राकृत दिव्य पुरुष विग्रहसे भिन्न विचित्र चच्छाकार रूप धारण करती दे | तथा नक्षत्र मण्डरूको छिन्नभिन्न करके प्रत्येक दिशाओंमे विखेरती हुई अपने स्वयं विद्यकके सदश चज्वछ रूपमें प्रकाशित होती है। जो अपने प्रकृष्ट वेगवाएं प्रयाणके द्वारा भगवान्‌ के अभिनव महत्वको प्रकट करती है। वह श्रीचक्रराजकी दिव्य नेमि आपकी चित्तवृत्तिको शान्त तथा वशर्मे करे ॥ ३१ ॥ नाकीकः शत्रजच्त्रटनविघटितस्कन्धनी रन्ध्रनिय न नव्यक्रव्यास्रहव्यग्रसनरसलसज्ज्वालजिद्वालवह्विस्‌ ।




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