श्री योग कल्पद्रुम | Shri Yog Kalpdrum
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
304
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about परमहंस ब्रह्मानंद स्वामिना - Paramahans Brahmanand Swamina
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१७)
» तके एकादशरस्कधर्मे राजा यदु्केश्रति दत्तात्रेयजीने कथन'कि-
येहें “गृहरंभो हि दुःख़ाब न सुखाय कदाचन ॥ सर्पः पर-
कृत वेश्म भविश्य सुखमेधते” अर्थ ० हें राजन् गृहका आरंभ
करणा केवठ दुःखकांहि हेतु है, कुहेतें जो पुरुष गह चनाता
हु सोइ तिसके वृद्धिहासादिकजन्य छेशका अनुभव करेंहः
ञी जो गृहका आंरभ नहि करणा है सोई परम सुखका
हेतु है, काहेतें जैसे सर्प अन्यरचित ग़हविषे निवास करके सु-
खडू प्रात होवेह तेसेहिं विरक्त पुरुपभी अन्यरविंत गुहा-
आदिक स्थानाम निवास कश्के सुखकूं भाप्त होवेहे इति ॥
इसहिं प्रकार अनुक्त मित्र क्षेत्रादृक पदाथोविफ्रेशी यथा-
योग्य दोष जानटेने इति ॥ ४ ॥ इस मरकार योगरूप कल्प-
वृक'्षके एक स्कंधका निरूपण करके अब दूरुरा स्कंधरूप जो
अन्ष्यासहै तिसकू वर्णन करेंहें ॥
डुतविलंबित वृत्तम् ॥«
समपहाय तु दोपदृशाखिलं
विजनदेशंगतो गतसाध्वस
समपकल्प्य शुभासनमात्मनो
दृठम तिः ऋमरास्तु सम5यसत् ॥
1]
User Reviews
No Reviews | Add Yours...