काव्यालंकार सूत्राणि | Kavyalankara Sutrani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रुप ) कविपक्ष काव्य की उत्थानभूमिका का पक्ष है वह मुहानी या उत्स या क्षोत है। काष्य कवि के कविकर्प का छब्दार्थाखित परिणाम है जौरसहृदय है। अनुभविता | सौन्दयय- सप्रदाय या रीतिवाद में भी ये सभी पक्ष चले आते हैं । उच्चका १ समाधिवामक अर्थ गुण कविपक्ष है, २ कातितामक बर्थ गुण सहृदयपक्ष और हे शेष गुण हैं शिल्वपक्ष या कास्यपक्ष । इस प्रकार वामन की विचार-यात्रा का क्रम भी वहीं है जो परदवर्ची आनन्दवर्धन की यात्रा का है, भेद केवल आरम्भक भूमिका वा है। आनन्दवधन रुखकी भोगभूमिका से यात्रा आरम्म करते हैं ओर वामन सौन्दययं की चैतन्मभूमिवा से। निबंचन दोनों एक ही युवक का करते हैं--स्वस्थ युवक का, भूषित ओर सौभाग्य सम्पन्न उत्तम युवक का। एक अस्तर यह भी है कि आनन्दवर्धन शरीर और उसके यौवन को अधिक महृत्त्व नहीं देते, जब कि वामन उन पर भी काफ़ी ध्यान देते हैं । निष्कर्ष यह कि वृद्ध होते हुए भी वामन शरीर को एक युवक के दृष्टिकोण से देखठे हें जब कि आनन्दवर्धन नवीन हीठे हुए भी [ उठी घरीर वो ] एक वृद्ध के दृष्टिकोण से। ठीक ही है पिता वश देखता है ओर पुत्र श्रीर, किन्तु कुशल पिता और कुशल पुत्न दोनों देखते हैं। इस दृष्टि से वामन ही अधिक व्यावहारिक ओर छोकज्ञ सिद्ध होते हैं। रीवतिभेद्‌ू-- दण्डी ने गुणों की कल्पनर काब्यमार्य की यृष्ठभुसि पर की थी और मार्गों को दो भेदों मे विभक्त किया था-- १ बैंदर्भ तथा २ गौडीय वेदर्भ मार्ग को उत्होंने दाक्षिणात्य माय कद्ठा था ओर गौडीय मार्ग को पौरस्त्य । दाक्षिषात्य था वैदर्भ मार्ग को उन्होंने स्ंतुणसम्प्त और इल्ाघ्य मार्ग माना था। गोड़ीय भाग पर त्रे अधिक आदरवाव नहीं थे । भामह ने दोनों को महत्व दिया और छिखा-+ वेदर्भमन्यदस्तीति मम्यन्ठे सुधियोप्परे। तदेद च॑ कल ज्याय सदयेमपि नापरस्‌ ॥ गोडीयमिदमतत्‌ तु बैदभं॑मिति कि पृथक्‌। गतलुगतिदन्यायाप्रानास्येयपममेघसाम्‌ू ७ अलकारवदगप्राम्यमय्य न्याव्यमनाजुरूम्‌ 1 गौडीयमपि साधीमो वेंदभमित नज्यथा 0 १३१३५ ४ “बुछ सुधोजन वैदभ को गोडीय माय से पृषकू मानते ओर बहते हैं कि वही अधिक यच्छा है, गोडोय नहीं | वस्तुत “यह गोडीय है और यह वैेदर्भ” इस प्रकार की कोई




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