समयसारजी शास्त्र | Samayasaarji Shaastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र विषय ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर यह दिया है कि प्रतिक्रण -अग्रतिकमणसे रहित अप्रतिक्रमणादिस्वरूप तीसरी अवस्था शुद्ध आात्माका ही प्रहण है इसीसे आत्मा निर्दोष होता है ९, सपविशुद्ध्ञान अधिकोर आत्माके अकर्तापना दृशंतपूबंक कहते हैं फर्तापना जीव अज्ञानसे मानता है, उस अज्ञानकी सामर्थ्य दिखाते हैं जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना विनशना न छोड़े तब तक कतो होताहै... करतृत्वपना भोक्ट्पना भी आत्माका स्वभाव नहीं है, अज्ञानसे ही भोक्ता है ऐसा कथन ज्ञानी कर्मफलका भोक्ता नहीं है ज्ञानी कर्ता-भोक्ता नहीं है. उसका हृष्टांत पृंचंक कथन जो आत्माको कर्ता मानते हैं उनके मोक्ष नहीं है ऐसा कथन अज्ञात्ती अपने भावकमंका कर्तो है ऐसा युक्तिपूवक कथन आत्माके कर्तापना और अकर्तापना जिस तरह है उस तरह स्याद्गाद द्वारा तेरह गायाओंम सिद्ध करते हैं वौद्धमती ऐसा मानते हैं कि कर्मको करनेवाला दूसरा है और भोगनेवाला दूसरा है उसका युक्तिपूवंक निषेध कर्वृकर्मका भेद-अभेद बैंसे है उसीतरह नयविमाग द्वारा दृशंतपूरक कथन निश्चयव्यवहारके कथनको, खड़ियाओ दृशंतसे दस गायाओंमे सष्ट करते हैँ ज्ञान और क्षय सर्वधा भिसन हैं? ऐसा जाननेके कारण सम्यग्दश्रिको विषयोंके प्रति रागद्रेष नहीं होता, वे मात्र अज्ञानदशामे प्रवर्तमान जीवके परिणाम हैं अन्यद्वव्यका अन्यद्रव्य कुछ नहीं कर सकता ऐसा कथन से आदि पुद्गढके गुण हैं वे आत्माको कुछ ऐसा नहीं कहते कि हमको प्रहण करो और आत्मा भी अपने स्थानसे छूट कर उनमें नहीं जाता हे परन्तु अज्ञानी जीव उनसे बृथा राग-प्रेष करता है प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, और आलछोचनाकरा सरूप जो कर्म और कर्मफलको अनुभवता अपनेकों उसरूप करता है वह नवीन कर्मकों बाँधता है। ( यहीं पर टीकाकार आचायदेव इत-कारित-भहु: गाथा * १०६-७ ३०८४-११ ३१२१-१३ ३१४-१५ १३१६-९७ २३१४-१६ १२७ २१२१-२७ ३२९८-३६ १३१९-४४ ३४४५-४८ ३४६-४४ अ . ३६६-७१ श७२ ३७३-प२ ३०४३-४६ श्ट्ठ ४३४ ४३४ ४३८ 1 ४४४ 8४६ ४४६ श्५४ ध्र्श्प ४७० ४७१ ध्रपर ४६६ ४०! ४०४ ५१२ ११४




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