जिनजीकी वाणी | JInjiki vani

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JInjiki vani by हिंमतलाल जेठालाल शाह - Himmatalal Jaithalal Shah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ध् विषय गाया . पृष्ठ ऐसे शिष्यके प्श्नका उत्तर यह दिया है कि अतिक्रमण -अप्रतिक्रमणसे रहित अप्रतिक्रमणादिस्वरूप तीसरी अवस्था शुद्ध आत्माका ही ग्रहण है, इसीसे आत्मा निर्दोष होता है ३०६-७ ४१४ ९, स्वविशुद्धश्ञान अधिकार ४३५ आत्माके अकर्तापना दृश्ंतपूर्वक कहते हैं ३3०८-११ ४४८ कर्तापना जीव अज्ञानसे मानता है, उस अज्ञानकी सामथ्ये दिखाते हैं ३१२-१३.. ४४० जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना विनशना न छोड़े तब तक कर्ता होता है ३२१४-१५. ४७४२ कतृत्वपना भोक्‍्टपना भी आत्माका स्वभाव नहीं है, अज्ञानसे ही भोक्ता है ऐसा कथन ३१६-१७. ४४४ ' ज्ञानी कर्मफलका भोक्ता नहीं है ३२१८-१६ ४४६ ज्ञानी क्तों-भोक्ता नहीं है उसका दृष्टांत पूवंक कथन ३२० ४४६ जो आत्माको कर्ता सानते हैं उनके सोक्ष नहीं है ऐसा कथन ३२९१-२७. ४४४ अज्ञानी अपने भावकर्मका कर्ता है ऐसा युक्तिपूवक कथन श्रप-३१.... धश्प आत्माके कर्तापना और अकर्तापना .जिस तरद्द है उस तरह स्याद्माद द्वारा | तेरह गाथाओंम सिद्ध करते हैं ३३१२-४४ .. ४७० वोद्धमती ऐसा मानते हैं कि कर्मको करनेवालढा दूसरा है और भोगनेवाला दूसरा है उसका युक्तिपूषंक निपेध ३४४५-४८... ४७१ करंकर्मका सेद-अभेद जैसे है.उसीतरह नयविभाग द्वारा दृष्टांतपूवंक कथन ४६-४५... ४८२ निश्चयव्यवद्दारके कथनको, खड़्ियाके दृष्टांससे दस गाथाओंमें स्पष्ट करते हैं ३४५६-६५. ४६६ ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न हैं? ऐसा जाननेके कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति रागद्वेष नहीं होता, थे मात्र अज्ञानदशामे प्रवर्तमान जीवके परिणाम हैं ३१६६-७१. ४०१ । अन्यद्रब्यका अन्यद्रव्य कुछ नहीं कर सकता ऐसा कथन ७२ ४०५ स्पर्श आदि पुद्गछके गुण हैं वे आत्माको कुछ ऐसा नहीं कहते कि हमको प्रहण करो और आत्मा भी अपने स्थानसे छूट कर उनमें नहीं जाता है परन्तु अक्षानी जीव उनसे वृथा राग-हेष करता है इ७छ३-पर.. श१्र प्रंतिक्रमण, प्रत्याख्यान, और आलोचनाका स्वरूप रेपरे-८द... ऑरश जो कर्म और कर्मफलको अनुभवता अपनेको उसरूप करता है वह नवीन कर्मको बाँधता है। ( यहीं पर टीकाकार आचार्यदेव कृत-कारित-अनु-




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