तुलसी के राम | Tulsi Ke Ram

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Tulsi Ke Ram by बजरंग दत्त मिश्र - Bajrang Datt Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२२ | तुलसी के राम की आहुति देकर प्राप्त किया था । श्रीराम का वीरत्व भअमित है। वे मारीच को बिना फर के बाण से मार कर समुद्र पार सौ योजन दूर भेज देते हैं। खरदूषण तथा उसकी सेना का वे अकेले ही संहार कर देते हैं। रावण, कुंभभरण तथा अन्य राक्षस वीरों को, जो कि अपने को अजेय समझ्नते थे मौत के घाट उतार देते हैं । राजा या शासक का प्रथम एवं सर्वोपरि कतंव्य यही है कि वह सदैव अपनी प्रजा के कल्याण के लिए चितित रहे। श्रीराम प्रजाजनों को बुलाकर कहते हैं कि मेरा सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति वही है जो भय- रहित होकर मुझे टोंक दे, यदि मैं कोई अनुचित कार्य करू । उन्हें निरन्तर प्रजाजनों के कल्याण की चिन्ता बनी रहती है। वे उनके धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष सभी की संपन्‍्नता चाहते हैं। वे सभी को बुलाकर यह बात स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है। इसका उद्देश्य-विषय भोग न हो कर अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना है। जो सारा समय विषय भोग में ही लगा देता है वह अन्त में पश्चाताप करता है। श्रीराम का राज्य-संचालन कार्य इतना सुन्दर था कि आज भी उसे आदर्श माना जाता है। उनके राज्य में बेर-विग्रह, ईर्ष्या-दंष तथा दुख-देन्य को किचिन्मात्र भी स्थान न था। सभी नागरिक अपने अपने वर्ण एवं आश्रम के अनुसार अपने कर्तव्यों में संलग्न रहते थे । उनमें परस्पर प्रेम था। वे सभी उदार तथा गुणी थे। प्रकृति भी अनुकूल थी। कहते हैं-मनुष्य का देनिक जीवन जितना ही अप्राकृतिक होता जाता है प्रकृति भी उतनी ही कुंठित तथा प्रतिकूल होती जाती है और उसका कार्य-व्यापार भी तदनुसार ही होने लगता है। श्रीराम एक आदर्श राजा थे उनकी प्रजा धर्म परायण थी अस्तु प्रकृति भी अनायास ही अपने सामायिक कार्यों से उन्हें हर प्रकारं की सुविधा उपलब्ध कराती रहती थी । इन्हीं अर्थो में राम-राज्य आदर्श था । आज भी लोग रामराज्य के सुशासन को अपना आदर्श मान कर उसको प्राप्त करने की अभि- लाषा रखते हैं। ...._ तुलसी के राम एक मात्र दशरथ-नन्दन राम ही नहीं हैं वे तो घट-घटवासी परब्रह्म ही हैं। आज उनके नाम का जप, उनके स्वरूप




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