भारतीय नाट्य साहित्य | Bharatiy Natya Sahity

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Bharatiy Natya Sahity by डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाटय-सिद्धान्त [ १५ वेश्या की आत्मा उसके शरीर में प्रविष्ट करा दी जाती है और महात्मा का शरीर हाव-भावों का प्रयोग करने लगता है। श्गार रस के स्वगत-भाषणों में शूद्रक, वररूचि, ईश्वरदत्त तथा द्यामिलक द्वारा रचित हास्य और यथार्थ तत्त्वों से पुष्ट चार प्राचीन भाण प्राप्त होते हैं । तृतीय उल्लेखनीय श्रेणी उन रूपको अथवा दाशें- निक नाठको की है जिनमें प्रमृते श्रवधारणाएँ--ग्रुण, दोष और विचार-प्रणालियां--- पात्रो के रूप में ग्रक्रित हैं। इस श्रेणी के नाटक का सुत्रपात तुफन की खुदाई मे उपलब्ध अश्वघोष की रचनाओं के भ्रशो मे प्राप्त होता है, नवी शताब्दी के काश्मीरी ताकिक-कवि जयन्त का भ्रागमडम्वर यह उदात्त सन्देश प्रदान करता है कि सब धर्मों का शुद्ध हृदय से भ्रतुसरण सत्य-प्रन्वेषण के उपयुक्त मार्गों का निर्माण करता है भौर ग्यारहवी शताब्दी के कृष्ण मिश्र का 'प्रवोध चन्द्रोदय अतीव प्रतिभा, शक्ति एवम्‌ रस के साथ वेदान्त-दर्शन का चित्रण करता है । भारतीय सस्क्ृति के इतिहास में सस्क्ृत-नाटक श्र उससे उत्पन्न देशी भाषाओं के स्वरूपों ने एक भ्रत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किया था। ये लोगो को शताब्दियों तक मिरन्‍्तर श्ात्मिक, धार्मिक एवम झआादर्शात्मक सस्कृति की शक्तियो को समेकित करने फी प्रेरणा देते रहे हैं । इसी दृष्टिकोण को लेकर वे जनता के समक्ष उत्सवी में और देवालयो में श्रभिनीत किए जाते थे। जहाँ सस्क्ृत के सौन्दर्योद्भावकों के श्रनुसार रसानुभूति नाटक का सुरुष उद्ृंब्य है वहाँ उन्होंने यह भी कहा है कि कला का द्वितीय लक्ष्य मनुष्य को शिक्षा प्रदान करना है जिससे वह अ्रपने समक्ष उपस्थित किये गये नायको का श्रतुकरण करे, राम के समान कार्य करे ओर रावण द्वारा प्रवर्तित पथ का त्याग करे--विशेषत' श्ौर्यात्मक नाटक लोगों के समक्ष एक महा एवम्‌ उदात्त भात्मा का भादर्श उपस्थित करते थे जो बुराई से युद्ध करती थी भर विजयी होती थी। सामाजिक 'प्रकरण' में भी सच्चे प्रेम की विजय, चरित्र तथा पवित्रता का चित्रण किया जाता था । प्रहसनो और स्वगत-भाषणों में समाज के परजीवी तथा दम्भी जनों पर प्रमविष्यु व्यंग्य करते हुए उनके कपठ का भडाफोड किया जाता था महाकाव्यगत तथ्य-क्थन के साथ-साथ नाठक सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में जनता मे प्रौढ-शिक्षा प्रसार का भार भी उठाता रहा है और यदि भमृच्छुकटिक' के विनीत गाडीवान चेट की भाँति कोई भी सामान्य भारतीय सामान्यत. मूल्यों का वास्तविक ज्ञान रखता है शोर शिक्षा के अतिरिक्त शुद्ध सस्क्ृति के परीक्षणों में कदापि असफल नही रहता है तो इसका श्रेय बहुत-कुछ भारतीय नाठक को है । किन्‍्त, जैसा ऊपर कहा गया है, भारतीय सिद्धान्तानुसार नाटक का सामयिक् प्रयोग भानुपगिक है । नाट्य-मास्त्र के प्रारम्भिक परिच्छेद में भरत द्वारा वणित एक महत्वपूर्०ण कथानक मिलता हे--जब देवो की असुरो पर विजय की कथा का प्रभिनय किया गया तव भसुरो




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